मै कभी रवि प्रताप जी से व्यक्तिगत नहीं मिला, बस फ़ोन पर वार्तालाप हुआ, फेसबुक पर, वाहट्स एप्प पर कभी कभी विचारों का आदान प्रदान, बस इतना ही परिचय.. रवि प्रताप जी के विषय मे व उनकी इस उर्दू मिश्रित हिन्दी ग़ज़ल संग्रह के विषय मे मेरी लेखनी कुछ लिखें, ऐसा लग रहा है.. दुष्यंत कुमार कहीं आस पास ही है..मुझे इनकी इस कृति को हाथ मे लेते ही न जाने क्यों उनका स्मरण हो आया, ऐसा लगा की वे रवि प्रताप जी के देह मे उन्होंने परकाया प्रवेश किया हो, और जो कुछ उनके जीवन काल मे उनकी लेखनी से उत्सर्जित होना शेष रह गया था , वो रवि प्रताप जी की लेखनी से लिखवा मानो अपना संकल्प पूर्ण कर रहें हो..
पाँव छूता है वो बुजुर्गो का छोड़ो जाहिल गँवार है कोई..
वर्षो पूर्व की घटना याद आ गयी, प्रख्यात वामपंथी लेखक व *हंस* जैसी पत्रिका के संपादक *राजेन्द्र यादव* जी से मिलने *हंस* पत्रिका के दरियागंज दिल्ली स्थित कार्यालय मे प्रविष्ठ हुआ , हाथ मे मेरा पहला काव्य संग्रह *अनंत यात्रा* हाथ मे था, मन मे घबराहट थी, इतने बड़े लेखक से मिलने जा रहा हूँ तब इतनी समझ नहीं थी, की वामपंथी पैर छूने को बुर्जुआ लक्षण मानते है और इस अच्छा नहीं समझते, वो ऑफिस मे थे , हमेशा की तरह हाथ मे सिगार था, आँखों मे मोटा चश्मा हम ठहरे बिलासपुर जैसे कस्बे के निवासी, उनको सम्मान देने तुरंत उनके पैर छू लिए, उनके चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान थी.. वे समझ गए ये अपनी विचारधारा का नहीं है..
ख़ैर इस स्मृति ने मानस पटल पर दस्तक इसलिए दी क्यों की रवि प्रताप जी का ये शेर शायद उस सीधे सरल छोटे से कस्बे से आने वाले युवा कवि के देसी संस्कार की बात कर रहा है, जिसका इन नए वैचारिक आंदोलन से कोई लेना देना नहीं आज सचमुच नई पीढ़ी मे पाँव छूना, जाहिल होने की निशानी माना जाता है, आखिर हम किसी से कम है क्या..
रवि प्रताप जी जिस परंपरा को अपनी कलम से आगे बढ़ाना चाहते है, उस मे उनका निजी कुछ नहीं है, उनके जीवन के निजी अनुभव, तरुण अवस्था का इश्क, कोई खूबसूरत लड़की , किसी के प्रेम मे दिवाना कोई आशिक , उसके दिल की बात उस के ज़ज़्बात की बात.. इन सब से परे है रवि प्रताप की काव्य साधना.. ये उस परंपरा से आते है, जहां कवि का ह्रदय अपने आसपास के अन्याय को देख विचलित होता है, देश मे हो रहें अच्छे बुरे बदलाव को आवाज़ देना चाहता है.. यहीं है वो दुष्यंत कुमार वाली पाठशाला, जहां शिशु कक्षा का विद्यार्थी भी देश समाज और क्रान्ति की बात करता है रवि प्रताप जी जैसे क्रान्ति कवियों के पास वो वक्त है ही नहीं जो वो किसी माशूका के इश्क मे बर्बाद करें, यहाँ इश्क है साहब! पर वो पूरी इंसान की जात से है, दर्द है, तो अन्याय का, गैर बराबरी का, और चाहत है तो हर इंसान के चेहरे पर ख़ुशी की , हर औरत मर्द के साथ इंसाफ की..
*ज़ुल्म की आंधी के आगे*
*हर जुबा खामोश थी*
*बन गए सबकी जुबां*
*कुछ बे जुबां ऐसे भी थे..*
ये उनका आत्म कथ्य है, एक कवि ख़ामोशी से सब कुछ देखता है, अच्छा बुरा सब कुछ अपने अंतर समेटता है , एक तरह से वो खामोश है, वो कोई नायक नहीं है, सामान्य इंसान की तरह बे जुबां, किन्तु जब लेखनी उठाता है, तब रणभूमि मे किसी तलवार की तरह चलती है और कागज़ पर क्रान्ति के शोले उगलती है मुशायरा हो या हिन्दी का कवि सम्मेलन, तालियां तो बहुत बजती है साहब, पर रात बीतते ही वो किसी शराब की तरह तन मन से उतर जाती है, कल जिस पर वाह वाह कर रहें थे, सुबह होते तक याद तक नहीं.. पर जो रवि प्रताप जैसे लिख जाते है, वो भले ही वाहवाही हकदार न बने किन्तु अनगिनत वर्षो तक साहित्य के ख़ज़ाने का हिस्सा बन कर अमर हो जाता है.. वे कोलकाता मे रहते है, जिस दिन जिंदगी पूरी होगी, चार जन मिल उनके नश्वर देह को केवड़तल्ला शमशान भूमि मे हरि बोल हरि बोल कहते ले जा कर फूँक आएंगे.. पर जो वे कागज़ पर उतार गए , वो तो नहीं मरा करता
कबीर साहेब कहते है
साधो ये मुरदो का गांव..
पर इस संसार मे जो कुछ जीवित रहता है, वो निश्चित ही रवि प्रताप जैसे ही रच जाते है आइए उनकी इस कृति के कुछ पन्ने पलटते है..उनकी लेखनी सिंह नाद करती है, वे उस दायरे मे बंधना नहीं चाहते, जहां शायरी मे केवल माशूका के ज़ुल्फो की हो, उसकी नशीली आँखो का नशा हो , उस के रसीले ओठों की बात हो
वे गर्जना करते है..
*इंकलाबी हो कलम*
*या शायरी ही छोड़ दे*
देखिए उनकी कलम का हुनर
कितनी गहरी बात वो कह रहें है
*सियासत मे सभी अपने पराए*
*एक से लगते*
*जो तख़्त-ओ-ताज देता है*
*उसे बनवास देता है….*
कोई शायर या कवि होने का दावा करें और ज़िन्दगी पर,जीवन पर वो कुछ न लिखें ऐसा नहीं हो सकता, रवि जी भी लिखते है…
*रेत मुट्ठी से झरे*
*यूँ झर रही है जिंदगी*
*कतरा कतरा रोज़*
*थोड़ा मर रही है जिंदगी..*
ऐसा नहीं है, वे निराश है, मानवता पर, क्रान्ति पर उनकी पूर्ण आस्था है, वे लिखते है..
*किसका ये घूंघट उठा*
*फैला सवेरा हर तरफ*
*रौशनी से हार बैठा है*
*अंधेरा हर तरफ..*
ये वे रचनाएँ है, जो बरसो तक मन के किसी कोने मे यादे बन कर रह जाती है यदि हम भाषा पर बात करें तो, ये वो भाषा है जिस के पक्ष मे कभी सुभाष बाबू थे, ये हिंदुस्तानी है, उर्दू फ़ारसी मिश्रित हिन्दी किन्तु शुद्ध हिन्दी के समर्थक इसे स्वीकार नहीं करना चाहते मेरा व्यक्तिगत मत ये है की कोई भी रचनाकार अपनी बात उसी भाषा मे रखेगा, जिस भाषा मे उसके भावों को उसकी लेखनी व्यक्त कर पाती है, शुद्ध हिन्दी की अपेक्षा तो ठीक है किन्तु अनिवार्यता, काव्य मे तो संभव ही नहीं है, फिर मंचों पर जो काव्य पाठ होता है, उस मे इसी प्रकार की जन सामान्य को समझ आने वाली भाषा मे लिखा काव्य ही वाह वाही पाता है, लोकप्रिय होता है किन्तु रवि जी एक राष्ट्रवादी है , इसलिए संस्कृत निष्ठ हिन्दी का अनुप्रयोग उन से अपेक्षित है रवि जी चुंकि एक राष्ट्रीय साहित्य संस्थान *शब्दाक्षर* के राष्ट्रीय अध्यक्ष व संस्थापक है, उनकी रचनाओं को निश्चित ही पाठक व श्रोता अवश्य मिलेंगे
जहां तक मेरी जानकारी है ये उनका पहला संग्रह है , ये उनके प्रतिभा सम्पन्न शायर होने की मानो प्रथम सूचना है, हम आगे उनकी प्रतिभा के और प्रमाण देखेंगे निश्चित ही यह कृति पठनीय है और कुछ रचनाएँ निश्चित ही योग्य संगीतकार द्वारा मधुर संगीत मे ढाल कर गज़ल गायको द्वारा गायी जा सकती है फ़िल्म या टीवी सीरियल इत्यादि मे कुछ रचनाओं का उपयोग हो सकता है यदि ऐसा होता है , तो इस संग्रह की गज़ले आम जन की जुबां पर होगी शुभकामनाओं के साथ | संजय अनंत
समीक्षक: संजय अनंत
पुस्तक का नाम : *सन्नाटे भी बोल उठेंगे*
रचनाकार : रवि प्रताप सिंह
प्रकाशक : रिगी पब्लिकेशन, khanna -141401
पंजाब (भारत )