रायपुर, (media saheb.com) अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन परिभाषित किया है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होता है और उसकी अनुमति से शासन होता है, जनता की प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य होता है। देश का एक वैचारिक समूह और राजनीतिक विचारधारा बीते कुछ सालों से लगातार “लोकतंत्र खतरे में है” का हल्ला बोल रहा है। इस सियासी शोरगुल के बीच अब यह विचार मंथन जरूरी है कि क्या वर्तमान राजनीतिक परिवेश में देश लोकतंत्र के बुनियादी लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब हो पाया है? लोकतंत्र में लोक यानि आम आदमी की भूमिका कितनी है? क्या भारतीय लोकतंत्र बीते दशकों में आम आदमी को वह मौलिक अधिकार और समान अवसर उपलब्ध करा सका है जिसका जिक्र हमारे संविधान में है? क्या देश में अभिव्यक्ति और असहमति का मौलिक अधिकार अब सत्ता के मुट्ठियों में कैद होने लगा है? क्या देश का लोकतंत्र सचमुच में खतरे में है?इन सवालों के जवाब के लिए देश की राजनीतिक परिस्थितियों और नागरिकों की भूमिका का विश्लेषण आवश्यक है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं।
चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है जिसमें जनता लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद और विधानसभाओं के लिए अपना प्रतिनिधि चुनती है। बीते दशकों की बात करें तो इस दौर में चुनाव और लोकतंत्र के मंदिर दोनों की गरिमा, पवित्रता, निष्पक्षता और मर्यादा खंडित हुई है। इन परिस्थितियों के लिए नि: संदेह हमारे राजनीतिक दल और राजनेता के साथ-साथ आम जनता भी जिम्मेदार हैं। आज के दौर में हर राजनीतिक दल ऐन-केन प्रकारेण चुनावों में तमाम हथकंडे अपना कर सत्ता हासिल करना चाहती हैं। सियासी दल चुनावी नतीजे अपने पक्ष में करने के मतदाताओं के साथ साम,दाम, दण्ड और भेद की रणनीति अपना रहे हैं। सत्ता को सेवा का माध्यम बताने वाले सियासी दल हर हाल में कुर्सी हथियाने के लिए थोक में दलबदल करा कर जनादेश बदल रहे हैं फलस्वरूप जनता अपने आपको छला महसूस कर रहे हैं।
भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का दायित्व होता है कि वे संसद और विधानसभाओं में आम नागरिकों के आकांक्षाओं के अनुरूप नीतियां और योजनाएं बनाएं। देश के संसदीय इतिहास पर गौर करें तो अब हमारी विधायिका लगातार जन-सरोकारों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं इसके लिए सत्ता और विपक्ष दोनों जवाबदेह हैं। विडंबना है कि संसद और विधानसभाओं की बैठकें हंगामे की भेंट चढ़ रही हैं जिसके एक-एक मिनट का खर्च जनता के खून-पसीने की कमाई का है। संसद और विधानसभाओं में सदस्यों का आचरण उनके निर्वाचकों को शर्मसार कर रहा है। विडंबना है कि देश का आम आदमी, मजदूर, किसान महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी,गरीबी, बीमारी और प्रदूषण जैसी त्रासदी से जूझ रहा है लेकिन लोकतंत्र के मंदिर में सत्ता और विपक्ष के पास इन मुद्दों पर बहस और मुबाहिसों के लिए समय ही नहीं है। सत्ता की नीयत जहां बहुमत के बल पर असहमति को खारिज करने की बनते जा रही है वहीं विपक्ष अपनी भूमिका सिर्फ विरोध, हंगामे और बहिर्गमन तक ही सीमित कर चुकी है जबकि उसका दायित्व सरकार को रचनात्मक सुझाव देना भी है।
बहरहाल संसदीय लोकतंत्र के क्षीण होती मर्यादा के लिए हमारी चुनावी राजनीति जिम्मेदार है, हर हाल में सत्ता पाने की हनक के चलते राजनीतिक पार्टियां आपराधिक पृष्ठभूमि वाले बाहुबलियों और धनपतियों को उम्मीदवार बनाने में परहेज नहीं कर रहीं हैं विडंबना है कि ऐसे दागी लोग संसद और विधानसभाओं में पहुंच रहे हैं फलस्वरूप वहां की मर्यादा खंडित हो रही है। बेशक इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार वे मतदाता भी हैं जो मजहबी और जातिगत भावनाओं के ज्वार में अथवा मुफ्तखोरी के लालच या भय में उन्हें वोट कर रहे हैं। चुनावी राजनीति अब पूरी तरह से धर्म और जाति पर निर्भर हो चुकी है तथा आम आदमी के बुनियादी मसले हाशिए पर हैं।
इतिहास गवाह है कि दुनिया में कोई भी बदलाव युवाओं ने लाया है यह तब संभव है जब युवा व्यवस्था का हिस्सा बनें।लोकतंत्र की गंदा होती गंगोत्री को साफ करने की जिम्मेदारी देश के करोड़ों युवाओं पर है लेकिन वे इस दिशा में लगातार उदासीन नजर आ रहे हैं। आजाद भारत में 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए संपूर्ण क्रांति और 2011 में हुए अन्ना आंदोलन में युवाओं और छात्रों की सक्रिय भागीदारी ने राष्ट्र के सामने यह आस पैदा की थी कि यह तरुणाई देश के अधिनायकवादी और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को बदलने का सामर्थ्य रखता है लेकिन यह कारवां आगे नहीं बढ़ पाया। दरअसल युवाओं के राजनीति के प्रति उदासीनता की प्रमुख वजह युवाओं का वर्तमान राजनीति से मोहभंग होना और सियासी दलों में जारी वंशवाद के साथ-साथ सुरक्षित भविष्य की तलाश भी है। लोकतंत्र और वंशवाद पूर्णतः विपरीत विचार हैं लेकिन देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वंशवाद की जड़ें लगातार गहरी होती जा रहीं हैं।
बहरहाल लोकतंत्र में नागरिकों की सहभागिता केवल चुनावों के दौरान ही नहीं होना चाहिए अपितु उसका दखल सरकार के हर फ़ैसलों पर दृष्टिगोचर होना चाहिए। बीते दशकों के दौरान सरकारों के अनेक जनविरोधी फैसलों और कानूनों का देश की सिविल सोसाइटी और संगठनों ने खिलाफत किया है जिसके आगे सत्ता को झुकना भी पड़ा है। असहमति और अभिव्यक्ति का अधिकार लोकतंत्र का स्थायी और अभिन्न पहलू है लेकिन इस अधिकार के प्रति सभी राजनीतिक दलों और आम नागरिकों को जवाबदेह होना भी आवश्यक है। विचारणीय है कि हमारे संविधान ने हमें अनेक मौलिक अधिकार दिए हैं लेकिन इन अधिकारों के साथ नागरिक कर्तव्यों का पालन भी आवश्यक है। लोकतंत्र की जीवंतता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक निष्पक्ष और शत-प्रतिशत मतदान के प्रति अपनी जवाबदेही का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करें। लोकतंत्र में जनता की सीमित होती भूमिका के बीच सोशल मीडिया हालिया दौर में आम आदमी का संसद बन चुका है और इस माध्यम से अमूमन सभी राजनीतिक दल और राजनेता जुड़े हुए हैं। सोशल मीडिया देश और दुनिया के राजनीति और चुनाव परिणामों को काफी हद तक प्रभावित कर रहे हैं। देश के युवाओं और आम नागरिकों को इस सशक्त माध्यम का भरपूर इस्तेमाल संवाद और असहमति के लिए किया जाना चाहिए। नि: संदेह सोशल मीडिया विचारों के अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावी माध्यम है लेकिन इसके उपयोग के प्रति आम जनता को सतर्क और जवाबदेह भी रहना होगा क्योंकि इसका दुरूपयोग लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर बुरा असर डाल सकता है। बहरहाल भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र की मजबूती, जीवंतता और सार्थकता तब है जब सत्ता और सियासत जनता के मुद्दों को अपने सर्वोच्च प्राथमिकता में लाएं।