रायपुर (mediasaheb.com) |भारतीय परंपरा में विश्वास का बंधन ही मूल है और रक्षाबंधन इसी विश्वास का बंधन है। रक्षा सूत्र के रूप में भाई की कलाई पर राखी बांधती बहन को भाई रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदय को बांधने का भी वचन देता है। रक्षा सूत्र से शक्ति और रक्षा का वचन, और आपसी सौहार्द्र से ओतप्रोत है रक्षाबंधन।भाई से बहन वचन लेती है। राखी बंधवा कर भाई उसे स्वीकार करता है। भाई -बहनों के प्रेम से सराबोर रक्षाबंधन अनेक पौराणिक कथाओं को समेटे हुए है। देवासुर संग्राम में जब देवता पराजित हो रहे थे। इंद्र दुखी हो उठे। इंद्र की व्यथा देखकर उनकी पत्नी शाचि ने कहा मैं विधान पूर्वक रक्षा सूत्र तैयार करूंगी उसे आप स्वाति वाचन पूर्वक ब्राह्मण से बंधवा लीजिए। इन्द्राणी के बनाए रक्षा सूत्र को वृहस्पति ने इंद्र के हाथों में बांधते हुए स्वाति वचन कहा,
येन बद्धो बलिराज दानवेंद्रो महाबल, तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल।
अर्थात जिस रक्षा सूत्र से महान् शक्तिशाली राजा दानवेंद्रो राजा बलि को बांधा गया था उसी सूत्र से मैं तुझे बांधता हूं। हे रक्षे तुम अडिग रहना, अपने संकल्प से कभी विचलित ना होना।
रक्षा सूत्र के प्रभाव से देवताओं की विजय विजय हुई। रक्षा सूत्र श्रावणी पूर्णिमा को विशेष रूप से ब्राह्मण अपने जजमानों को बांधते हैं।
दानवीर राजा बलि के घमंड को दूर करने के लिए भगवान ने वामन अवतार लिया। छोटे कद वाले वामन ने राजा बलि से तीन पग धरती की मांग की और वचन लिया। राजा बलि ने वचन दिया। भगवान वामन ने दो पग में सारे जग को नाप दिया तो तीसरे पग के लिए राजा बलि ने अपना सिर झुका लिया।
भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और राजा बलि से वर मांगने को कहा। वचनबद्ध होकर विष्णु बैकुंठ छोड़कर बलि के राज्य पाताल लोक में आ गए। माता लक्ष्मी श्री हरि के नहीं लौटने के कारण चिंतित हो उठीं। नारद ने उन्हें बताया कि राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधकर उनसे वचन ले। देवी लक्ष्मी ने बलि को रक्षा सूत्र बांधकर उसके लिए मंगल कामना की। देवी अपने लक्ष्मी स्वरूप में आकर बलि से श्री हरि को मांगा और वचनबद्ध होने के कारण राजा बलि ने श्रीहरि को साथ ले जाने की अनुमति दे दी।
रक्षाबंधन में आत्मरक्षा का विधान भी है। महाभारत युद्ध के समय धर्मराज युधिष्ठिर विचलित होने लगे थे। धर्मराज ने श्रीकृष्ण से आत्मरक्षा का विधान पूछा तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें रक्षाबंधन की शक्ति और महत्व की जानकारी दी। रक्षा के लिए कवच युद्ध के मैदान तक ही सीमित नहीं है, यह जीवन की सुख, शांति का कवच भी है। व्यक्ति की क्षमता और सामर्थ्य का कवच है। श्री दुर्गा सप्तशती में ‘देवी कवच’ गुणों से ओतप्रोत है। सप्तशती में कवच का आशय ‘शांति सूत्र’ है जो हर प्रकार से प्राणियों की रक्षा करता है। देवी भी कहती है, जो कोई इस कवच का पाठ करते हुए वैसा ही आचरण करता है उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।
श्रावणी पूर्णिमा का पर्व विशेष रूप से ब्राह्मणों और पंडितों का पर्व रहा है। इस प्राचीन पर्व को वैदिक पर्व कहा जाता है। शास्त्रों में इसे ‘ऋषि तर्पण’ और ‘उपाकर्म’ कहा गया है। इस दिन यज्ञोपवीत धारण करने की परंपरा थी, इसका स्वरूप आज भी बंगाल, उड़ीसा, गुजरात और दक्षिण भारत में देखने को मिलता है। दक्षिण भारत में ‘अवनि अवित्तम’ के रूप में मनाया जाता है, इस दिन ब्राम्हण पवित्र यज्ञोपवीत धारण कर प्राचीन ऋषियों को जल अर्पित करते हैं।
रक्षा सूत्र कालांतर में रक्षाबंधन कहलाने लगा। ब्राह्मणों के पर्व का विस्तार हुआ और इसे बहनों ने अपना लिया और वे भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधने लगीं। प्रेम और सौहार्द के रिश्ता की प्रतीक राखी पवित्र बंधन को और मजबूत करती है। मानवीय रिश्ते को विश्वास के एक धागे में बांधता है, रक्षाबंधन का त्यौहार।