रायपुर (mediasaheb.com)| भगवान शंकर जी ने भी विष पिया और गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी । दोनों ने समाज को रामकथामृत देकर धन्य कर दिया। संसार में और समुद्र में अमृत मंथन करने पर विष अवश्य निकलेगा,
पर उसमें राम को जोड़ दिया तो वह विष भी अमृत हो जाएगा। यही तुलसीदास जी ने किया गरल सुधा रिपु करहिं मिताई, गोपद सिंधु अनल सित लाई। गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही, राम कृपा करि चितवा जाही ।। राम नाम के प्रति गोस्वामी जी की आस्था तो सावन मास के अंधे की तरह थी, जिन्हें राम प्रेम में सब हरा ही हरा दिखाई देता था । राम की
कृपा के प्रति गोस्वामी तुलसीदास जी की यह जो दीनता और शरणागति है, यही उनका चरम पुरुषार्थ है ।
कृपा के मूल में पुरुषार्थ नहीं होता है, अपितु पुरुषार्थ के मूल में कृपा होती है। रामचरितमानस कृपासाध्य ग्रंथ है, साधन साध्य नहीं। कर्म, उपासना, साधन, अनुष्ठानादि सब ठीक हैं, पर यह सब पाने के साधन हैं, किंतु जिसके जीवन में प्राप्तव्य ही कृपा से प्राप्त हुआ हो, वह क्या करे ? रामचरितमानस में पुरुषार्थ के चरम आदर्श श्री लक्ष्मण जी और कृपा के चरम आदर्श श्री भरत जी दोनों के आदर्श और सर्वस्व श्रीराम हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने वाल्मीकि जी, व्यास जी और जितने भी श्रेष्ठतम पुराणकार हुए सबकी वंदना की है, पर उन्होंने अपने ग्रंथ में न तो इतिहास को उठाया, न किसी ग्रंथ से कुछ लिया। इसीलिए श्रीरामचरितमानस भक्तों के हृदय सिंहासन पर विराजमान हो सका । (स्त्रोत-शाश्वत राष्ट्रबोध)