देश अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है लेकिन लोकतंत्र का महापर्व यानि चुनावों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता आज भी सवालों के घेरे में है। सियासी दलों के हर हाल में सत्ता पाने की हनक के चलते जहां पार्टियां आपराधिक और भ्रष्ट छवि वाले नेताओं को ही जीताऊ उम्मीदवार मानकर चुनावी मैदान में उतार रहे हैं वहीं मतदाताओं को रिझाने के लिए मुफ्त चुनावी रेवड़ियां बांट रहे हैं। देश की चुनावी राजनीति पर नजर डालें तो अमूमन सभी पार्टियां धर्म, जाति और क्षेत्रियता पर ही निर्भर हैं तथा टिकट बंटवारे में इस पैमाने को ही तरजीह दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के तमाम कोशिशों के बावजूद चुनाव में दागियों का रसूख लगातार बढ़ रहा है वहीं मुफ्तखोरी के चुनावी वादों पर भी प्रभावी अंकुश नहीं लग पाया है। चुनावी अखाड़े में धनबल और बाहुबल के सामने नैतिक बल लगातार पराजित हो रहा है फलस्वरूप लोकतंत्र बार-बार हतोत्साहित हो रहा है।
पांच राज्यों के चुनाव अभियान को देखें तो चुनाव कार्यक्रमों के घोषणा के पहले ही जहां विभिन्न राजनीतिक दलों ने वोटरों को रिझाने के लिए लोकलुभावन मुफ्त योजनाओं की झड़ी लगा दिया वहीं थोक में दलबदल का सिलसिला भी शुरू हो गया। सियासी दलों के राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने के कथनी और करनी की पोल उनके द्वारा घोषित प्रत्याशियों की सूची से खुल रही है।इस चुनाव में अनेक पार्टियों ने ऐसे उम्मीदवारों को टिकट बांटे हैं जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार, अपहरण, फिरौती, धोखाधड़ी और दंगा कराने के संगीन आरोप हैं इनमें से कई तो अभी भी जघन्य अपराध के जुर्म में जेल में बंद हैं। वंशवादी राजनीति के नाम पर एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने वाले अमूमन सभी पार्टियों ने चुनाव में परिवारवाद को बढ़ावा देते हुए अपने परिजनों को खूब टिकट बांटे हैं।
राजनीति में बढ़ते बाहुबल, धनबल और वंशवाद के बढ़ते प्रभाव के चलते भारतीय युवाओं और सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की अरूचि इस क्षेत्र के प्रति लगातार बढ़ रही है फलस्वरूप राजनीति की गंगोत्री दिनों-दिन मैली होते जा रही है। देश का सर्वोच्च अदालत चुनाव में अपराधियों और भ्रष्ट छवि वाले नेताओं पर अंकुश लगाने के प्रयत्नशील है लेकिन इन कोशिशों में सियासत भारी पड़ रही है।
सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका पर चुनाव आयोग ने अदालत को बताया था कि उसने और विधि आयोग ने गंभीर अपराधों में तय आरोपी व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर रोक के कानून का प्रस्ताव सरकार को दिया था लेकिन सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया वहीं संसदीय समिति ने इस सिफारिश को ही खारिज कर दिया। अमूमन सभी राजनीतिक दल आपराधिक छवि वाले अपने उम्मीदवारों की तरफदारी करने के लिए उनके विरुद्ध दर्ज संगीन मामलों को राजनीति प्रेरित बताने में भी नहीं चूक रहे हैं। राजनीतिक दलों की दलील यह भी कि अदालत द्वारा दोषी सिद्ध होने तक उनके नेता, कार्यकर्ता और उम्मीदवार निर्दोष हैं। बाहुबल और धनबल के सहारे चुनाव जीतने वाले दागियों के आचरणों और हंगामों के कारण लोकतंत्र का मंदिर यानि लोकसभा और विधानसभा की मर्यादा अनेकों बार खंडित हुई है।एक रिपोर्ट के मुताबिक हालिया 17 वीं लोकसभा में 233 यानि 43 फीसदी ऐसे सांसद हैं जिन पर कोई न कोई आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन सांसदों में से 159 के खिलाफ गंभीर अपराध के मामले कायम हैं जिसमें 19 सांसदों के खिलाफ महिला अपराध और 3 सांसद के विरुद्ध बलात्कार के मामले दर्ज हैं। वर्तमान लोकसभा में 10 सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ दोष सिद्ध हो चुके हैं। राज्यों के विधानसभाओं में भी बाहुबलियों और दागियों की अच्छी खासी तादाद मौजूद है।
बहरहाल हर बार की तरह इस चुनाव में भी मजहब और जाति के सियासी दांवपेंच के चलते आम आदमी के बुनियादी मुद्दे एक बार फिर से हाशिए पर हैं। आज देश की एक बड़ी आबादी महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और बीमारी की समस्या से त्रस्त है लेकिन इन समस्याओं पर धर्म और जाति का मसला भारी पड़ने लगा है। चुनावी राज्यों में पार्टियों द्वारा प्रत्याशी की पृष्ठभूमि और दलीय निष्ठा को ताक में रखकर मजहब और जातिगत समीकरणों को ध्यान रखते हुए टिकट बांटे जा रहे हैं। इस चुनाव में एक बार फिर से “मंडल” और “कमंडल” की राजनीति को केंद्रीय भूमिका में लाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि आगामी लोकसभा चुनाव की राजनीतिक जमीन तैयार की जा सके।
देश की राजनीतिक व्यवस्था को वंशवाद और दलबदल भी खूब प्रभावित कर रहा है।लोकतंत्र और वंशवाद सर्वथा विपरीत विचार हैं लेकिन अमूमन सभी पार्टियों में वंशवादी राजनीति हावी है। वर्तमान लोकसभा में 30 फीसदी सांसद परिवारवाद की उपज है तो दूसरी ओर दलबदल राजनीति का मूल चरित्र बनते जा रहा है। दलबदल करने वाले अधिकांश राजनेता सालों सत्ता का सुख भोगकर पार्टी की तमाम खामियां गिनाते हुए उस पार्टी में शामिल हो जाते हैं जिनके खिलाफ या तो उन्होंने चुनाव लड़ा था अथवा लगातार उस पार्टी को कोसते रहे हैं। जनप्रतिनिधियों के अवसरवादिता और स्वार्थ के चलते दलबदल करने की प्रवृत्ति से उन्हें वोट करने वाले मतदाता व समर्थक ही छले जाते हैं। कई राज्यों में तो विधायकों के थोक में दलबदल के कारण जनादेश के विपरीत सत्ता परिवर्तन का इतिहास भी देश में मौजूद है। हालांकि देश में दलबदल कानून मौजूद है लेकिन इस कानून में और अधिक सुधार की जरूरत है ताकि दलबदलू नेताओं पर अंकुश लगाया जा सके।
गौरतलब है कि निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव की जवाबदेही आयोग की ही है लेकिन हाल के वर्षों में यह लाचार दिखाई दे रहा है। दरअसल आयोग के पास ऐसे अधिकार नहीं है कि वह अपने निर्देश की अनदेखी करने वाले राजनीतिक दलों अथवा प्रत्याशियों को दंडित कर सके। इस लाचारी का परिणाम यह हो रहा है राजनीतिक दल और प्रत्याशी तथा उनके समर्थक आयोग द्वारा निर्धारित आदर्श आचार संहिता का लगातार उल्लंघन कर रहे हैं। आयोग और प्रशासन के लाख दावों के बावजूद लोकसभा से लेकर स्थानीय निकाय और पंचायतीराज संस्थाओं के चुनाव में मतदाताओं को वोट के बदले शराब,नगदी, साड़ी,कंबल और कूकर बांटने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। कई मामले में चुनाव आयोग खुद कठघरे में खड़ा दिखाई देता है हाल ही में संपन्न अनेक चुनावों के दौरान विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग की भूमिका और निष्पक्षता पर गंभीर आरोप लगाए हैं। इन परिस्थितियों में अहम सवाल यह कि जब चुनाव आयोग ही निष्पक्ष और स्वतंत्र नहीं रहेगा तब चुनावों की पारदर्शिता और शुचिता कैसे कायम रहेगी?
बहरहाल देश के लोकतंत्र की मर्यादा की रक्षा के लिए राजनीति का शुद्धिकरण और चुनाव प्रक्रिया में निरंतर सुधार आवश्यक है लेकिन इसके लिए मतदाताओं, राजनीतिक दलों, राजनेताओं और चुनाव आयोग को जवाबदेह बनना होगा।मतदाता ही लोकतंत्र का भाग्य विधाता है इसलिए उसे धर्म, जाति, क्षेत्रियता की भावना से परे प्रलोभन मुक्त मतदान की ओर प्रेरित होना चाहिए।राजनीतिक दलों से अपेक्षा है कि वे चुनाव में मुफ्तखोरी, मजहब और जाति की सियासत से उपर उठकर स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों तरजीह देते हुए आम आदमी के बुनियादी समस्याओं को दूर करने के लिए विकासोन्मुख योजनाओं का खाका प्रस्तुत करें ताकि चुनाव की शुचिता और लोकतंत्र की मर्यादा सुरक्षित रहे।