मैंआपसे किसी तरह की सांत्वना पाने के लिए यह पत्र नहीं लिख रही हूं लेकिन मैं आपसे यह जरूर मांग करती हूं कि न्याय हो। मेरे बेटे की मौत कैद में हुई है। कैद भी बिना सुनवाई के। आपने यह बताने की कोशिश की है कि कश्मीर की सरकार ने सब कुछ किया, जो किया जाना चाहिए था। आपने जो कुछ कहा उसका आधार आप को दी गई जानकारी और भरोसा होगा। उनकी क्या कीमत है, मैं पूछती हूं, उस जानकारी की, जो उन लोगों की ओर से दी जा रही है, जिन्हें कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए था। आप कहते हैं, आप मेरे बेटे की कैद के दौरान कश्मीर गए थे। आप उस स्नेह की बात करते हैं जो उनके लिए आपके दिल में था। लेकिन आश्चर्य है कि आपको व्यक्तिगत तौर पर जाकर उनसे मिलने से किसने रोका था और आपने खुद जाकर क्यों नहीं देखा कि उनकी सेहत की देखभाल के लिए क्या इंतजाम है? यह उस पत्र का हिस्सा जो डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मां जोगमाया देवी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को लिखा था। वे पत्र में आगे लिखती हंै कि इस बात की पक्की जानकारी है कि मेरे बेटे की तबीयत कैद में डाले जाने के बाद से ही अच्छी नहीं थी। वह कई बार बुरी तरह बीमार पड़ा और वह भी एक के बाद एक कई दिनों के लिए।
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आकस्मिक मृत्यु का रहस्य आज भी बना हुआ है। भारत सरकार के एक सचिव राघवेंद्र सिंह ने 1954 की गृह मंत्रालय की फाइल की नोटिंग को अपने लेख में उजागर कर उस रहस्य को और गहरा कर दिया है।
मैं पूछती हूं क्यों नहीं कश्मीर की सरकार या आपकी सरकार ने मुझे या मेरे परिवार को इस बात की जानकारी दी? जो सीधे तौर पर सरकार की लापरवाही का प्रमाण है। आपने डॉक्टर मुखर्जी को कैद के दौरान दी गई सुविधाओं और सुख-साधनों का जिक्र किया है। यह विषय हैं, जिन पर चर्चा होनी चाहिए। कश्मीर की सरकार में इतना भी शिष्टाचार नहीं था कि वे घर से आने वाली चिट्ठियों को बिना रोक-टोक उन तक पहुंचने देती। चिट्ठियों को कई दिनों तक रोक कर रखा जाता था और उनमें से कुछ तो रहस्यमयी ढंग से गायब ही हो गई। घर का समाचार पाने की उनकी चिंता, खास तौर पर अपनी बीमार बेटी और मेरे लिए चिंता ने उन्हें बेहाल कर दिया। क्या आप यह जानकर आश्चर्यचकित होंगे कि पिछले 27 जून को हमें उनकी वे चिट्ठियां मिलीं, जो 15 जून की थी, इसे कश्मीर की सरकार ने एक पैकेट में 24 जून को भेजा, यानी उनका शव भेजने के अगले दिन। उसी पैकेट के साथ वे चिट्टियां भी वापस आईं, जो हमने डॉक्टर मुखर्जी को लिखी थी और जो एक 11 व 16 जून को श्रीनगर पहुंच गई थी, लेकिन इन्हें उन तक पहुंचाया ही नहीं गया। ये पूरी तरह से एक मानसिक प्रताड़ना का मामला है।
वह टहलने के लिए पर्याप्त जगह की मांग लगातार कर रहे थे। ऐसा नहीं हो पाने की वजह से ही वह खुद को बीमार महसूस कर रहे थे। लेकिन बार-बार उनकी मांग को ठुकरा दिया गया। क्या यह मामला शारीरिक प्रताड़ना का नहीं है? मुझे आश्चर्य भी होता है और शर्म भी आती है जब आप मुझे यह बताते हैं कि उन्हें जेल में नहीं, एक प्राइवेट विला में रखा गया था, जो श्रीनगर की मशहूर डल झील के किनारे है। एक छोटे से बंगले में, जहां का परिसर भी बेहद छोटा था और जहां दिन रात हथियारबंद गार्ड तैनात थे, वहां उसे जिंदगी गुजारनी पड़ रही थी। क्या आप यह गंभीरता से मानते हैं कि एक कैदी सोने के पिंजरे में खुश रह सकता है? मैं ऐसे दुष्प्रचार से हिल जाती हूं। मैं नहीं जानती कि उन्हें किस तरह की चिकित्सकीय सुविधा दी गई। जो सरकारी रिपोर्ट है और मुझे जो बताया गया, दोनों परस्पर विरोधी हैं। अनेक उत्कृष्ट चिकित्सकों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके मुताबिक यह कम से कम घोर लापरवाही का तो केस था ही। इस मामले में एक निष्पक्ष और ठोस जांच होनी चाहिए। मुझे अपने प्यारे बेटे की मौत का गहरा दुख है।
मां जोगमाया देवी ने लिखा,‘आप से बात करना ही व्यर्थ है। मैंने आपसे साफ तौर पर कहा था कि मेरे पास पक्के सबूत हैं, जिनसे कुछ महत्वपूर्ण, प्रासंगिक तथ्य साबित किए जा सकते हैं। आपने उन्हें जानने और समझने की जरा भी कोशिश नहीं की। जाहिर है आपकी दिलचस्पी सच को उजागर करने की नहीं है।’
आजाद भारत के एक निडर बेटे की कैद में मौत हुई है, जिसे बिना सुनवाई के कैद में रखा गया और निहायत त्रासद व रहस्यमयी परिस्थितियों में उसकी मौत हुई। मैं उस महान आत्मा की मां होने के नाते मांग करती हूं कि स्वतंत्र और सक्षम लोगों के द्वारा पूरी तरह एक निष्पक्ष जांच का ऐलान बिना किसी देरी के कर दिया जाए।…. मां जोगमाया देवी के इस पत्र का जवाब पंडित नेहरू ने पत्र के माध्यम से दिया। वे जवाबी पत्र में लिखते हैं, ‘मैं एक मां के दुख और मानसिक पीड़ा को अच्छी तरह समझता हूं, जो अपने बेटे की मौत के सदमे में है। मेरे किसी भी शब्द से आपको पहुंची चोट कम नहीं हो सकती। मैंने आपको पहले चिट्ठी इसलिए नहीं लिखी क्योंकि मैं डॉक्टर मुखर्जी की गिरμतारी और उसकी मृत्यु के मामले को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। मैंने कई लोगों से इस बारे में मालूमात हासिल किए हैं। जो इस बारे में काफी कुछ जानते थे। मैं आपको सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैं एक स्पष्ट और ईमानदार नतीजे पर पहुंचा हूं कि इसमें कोई रहस्य नहीं है और डॉक्टर मुखर्जी का पूरा ख्याल रखा गया था।’ पंडित नेहरू के इस पत्र का अंतिम जवाब जोगमाया देवी ने दिया। उन्होंने लिखा,‘आप से बात करना ही व्यर्थ है।
मैंने आपसे साफ तौर पर कहा था कि मेरे पास पक्के सबूत हैं, जिनसे कुछ महत्वपूर्ण, प्रासंगिक तथ्य साबित किए जा सकते हैं। आपने उन्हें जानने और समझने की जरा भी कोशिश नहीं की। जाहिर है आपकी दिलचस्पी सच को उजागर करने की नहीं है।’ यही बात एनसी चटर्जी ने भी कही थी। उनका साफ तौर पर मानना था कि डॉ.मुखर्जी की मौत सरकारी षडयंत्र का हिस्सा है। पांडिचेरी की श्रीमां ने कहा, ‘उन्होंने, उनको मार डाला।’ सुचिता कृपलानी ने डॉ मुखर्जी को जम्मू कश्मीर जाने से रोका था। उन्होंने कहा था कि आप पंडित नेहरू को नहीं जानते। वे कुछ भी कर सकते हैं। इस बारे में बहुत विस्तार से मेघालय के राज्यपाल तथागत राय ने अपनी पुस्तक ‘अप्रतिम नायक- श्यामाप्रसाद मुखर्जी’ में लिखा है। वे लिखते हैं कि डॉक्टर मुखर्जी की बड़ी बेटी सविता मुखर्जी अपने पति के साथ उन सभी जगहों पर गई और पूछताछ की जहां उनके पिताजी को रखा गया था। बीमार पड़ने पर उनको अंतिम दिन जिस अस्पताल में भर्ती किया गया था वहां भी वह गईं। उनकी देखभाल करने वाली उस नर्स से भी वे मिलीं थी। जब सविता मुखर्जी श्रीनगर स्थित नर्स के घर पर पहुंची तो उस घर में दो महिलाएं रह रही थी। एक नर्स, दूसरी उनकी मां।
डॉक्टर मुखर्जी के साथ सहबंदी रहे गुरुदत्त के सवाल
पहला सवाल: क्या यह सत्य नहीं की सोशलिस्टों, कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों के प्रतिनिधियों को जम्मू कश्मीर जाने की स्वीकृति दी गई थी। केवल भारतीय जनसंघ तथा हिंदू महासभा के प्रतिनिधियों को ही वहां क्यों नहीं जाने दिया गया?
दूसरा सवाल: जवाहरलाल नेहरू जी ने पार्लियामेंट में कहा था कि जम्मू कश्मीर का संबंध भारत से शत-प्रतिशत हो गया है तो जनमत संग्रह की बात क्यों चल रही है, जो बात निश्चय हो चुकी है उस पर पुन: जनमत संग्रह के क्या अर्थ हैं?
तीसरा सवाल: परमिट सिस्टम भारत सरकार ने अपनी फौजी कार्यवाही की रक्षा के लिए लगाया था। पाकिस्तान सरकार ने ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं लगाया तो इस परमिट सिस्टम का अभिप्राय भारतीयों को कश्मीर जाने से रोकना है क्या?
चौथा सवाल: यदि नेहरू सरकार यह मानती है कि परमिट सिस्टम न्यायोचित है और आवश्यक भी है तो फिर डॉक्टर मुखर्जी को पठानकोट में ही क्यों नहीं रोका गया और क्यों बंदी नहीं बनाया गया?
पांचवां सवाल: भारत के लिए प्रतिष्ठित नागरिक के भारत से बाहर जहां भारत के न्यायालय का अधिकार नहीं। एक राज्य द्वारा बंदी बनाए जाने पर भारत सरकार ने उसको छुड़ाने का यत्न क्यों नहीं किया?
छठा सवाल: भारत सरकार ने डॉक्टर मुखर्जी की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो जाने पर जांच की मांग की है अथवा नहीं? यदि नहीं तो क्यों नहीं की? (इस सवाल का जवाब भारत सरकार के वर्तमान सचिव के लेख में मिल गया। जिन्होंने उजागर किया है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के जांच प्रस्ताव को तत्कालीन भारत सरकार ने लटकाये रखा था।)
सातवां सवाल: शेख अब्दुल्ला सरकार के वक्तव्य में कहा गया है कि वे पंडित नेहरू के विलायत से लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इस कथन के क्या अर्थ है?
आठवां सवाल: क्या इसका यह अर्थ नहीं कि पंडित नेहरू के कहने पर ही कश्मीर सरकार ने डॉक्टर मुखर्जी को पकड़ा था?
नौवां सवाल: क्या इसके अर्थ यह नहीं कि पंडित नेहरू ने यदि डॉक्टर मुखर्जी को पकड़ने के लिए कहा था तो अपनी जिम्मेदारी से कहा था और भारत के प्रधानमंत्री के नाते नहीं कहा था। यदि पंडित नेहरू की भारत के प्रधानमंत्री के नाते प्रतीक्षा हो रही थी तो भारत सरकार का जो भी प्रतिनिधि अथवा अधिकारी उस समय भारत में था उससे क्यों राय नहीं ली गई?
दसवां सवाल: क्या कश्मीर सरकार ने डॉक्टर मुखर्जी के रोगी होने की कोई सूचना भारत सरकार को दी थी? यदि नहीं तो भारत सरकार ने इस विषय में पूछा है कि क्यों नहीं दी गई?
सविता ने अपनी पहचान बताई तो नर्स ने कुछ भी बताने से साफ इंकार कर दिया। नर्स ने उन्हें वहां से चले जाने को कहा, लेकिन सविता के आंखों के आंसू फूट पड़े और वह विनती करते हुए नर्स से पूछी कृपया जो घटना हुई बताओ। तब नर्स ने सब कुछ बताया। उसने कहा कि डॉ मुखर्जी बीमार पड़े तो प्रसूति गृह ले जाया गया था। वहां उनके अंतिम दिनों में उसी ने उनकी देखभाल की। डॉक्टर आया। तो वे सो रहे थे। डॉक्टर जाते हुए मुझे बता गया कि जब डॉ मुखर्जी जागे तो उन्हें इंजक्शन दे दिया जाए। उसके लिए डॉक्टर ने एम्पुल छोड़ गए। कुछ देर बाद डॉ मुखर्जी जागे थे और हमने इंजेक्शन दे दिया। जैसे ही मैंने ऐसा किया, डॉ मुखर्जी उछल पड़े और पूरी ताकत से चीखे, जल जाता है हमको जल रहा है। मैं टेलीफोन की तरफ दौड़ी ताकि डॉक्टर को सूचित कर सकूं और पूछूं कि अब क्या करूं। डॉक्टर ने कहा ठीक है सब ठीक हो जाएगा। इस बीच डॉ मुखर्जी मूर्छित हो चुके थे। शायद वे मौत की नींद सो चुके थे। आज के युवा डॉक्टर श्याम प्रसाद मुखर्जी को बहुत कम जानते हैं। इसलिए इन्हें जानना बहुत जरूरी है। डॉ मुखर्जी भारत में कश्मीर का संपूर्ण विलय चाहते थे। इसलिए उन्होंने नारा दिया, ‘एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेगा।’
वे देश की एकता और अखंडता पर जोर देते थे और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते थे। मुखर्जी वर्ष 1934 से 1938 तक कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति रहे थे। वे सबसे युवा कुलपति बने थे। भारत की आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में वे कैबिनेट मंत्री बने और उन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपना पूरा योगदान दिया। पंडित नेहरू ने उन्हें उद्योग मंत्रालय का जिम्मा दिया था। वर्ष 1950 में नेहरू के मंत्रिमंडल से उन्होंने इस्तीफा दे दिया। क्योंकि कुछ मामलों में वे नेहरू की नीतियों से सहमत नहीं थे। कहा जाता है कि आजाद भारत के पहले नेता थे जिन्होंने अपने आदर्शों और उसूलों के लिए सरकार से इस्तीफा दिया था। इसके बाद उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की। कश्मीर को भारत में संपूर्ण विलय करने के लिए संघर्ष किया। साल 1953 में उन्होंने जम्मू कश्मीर को भारत में पूर्ण विलय के लिए वहां की प्रजा परिषद के आंदोलन का समर्थन किया। उस आंदोलन में दर्जनों लोगों की मौत और हजारों लोगों के गिरμतार होने के बाद वे वहां की जमीनी हकीकत को जानने के लिए उन्होंने बिना परमिट के जम्मू कश्मीर में प्रवेश करने का निर्णय लिया। तब जम्मू कश्मीर में कोई भी भारत सरकार से परमिट लिये बिना वहां नहीं जा सकता था।
8 मई 1953 को वे इसके लिए दिल्ली रेलवे स्टेशन से अपने कुछ सहयोगियों (गुरुदत्त वैद्य, अटल बिहारी वाजपेयी, टेकचंद एवं बलराज मधोक आदि) के साथ जम्मू के लिए रवाना हुए। उनकी यात्रा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से होते हुए हरियाणा और पंजाब के कई कस्बों से गुजरी। अपनी यात्रा के दौरान इन तीनों प्रदेशों के कई छोटेछोटे कस्बों से होकर गुजरे। सभी जगह उन्हें स्थानीय लोगों का बड़ा समर्थन मिला। जगह-जगह उन्होंने जनसभाओं को संबोधित किया। जिसमें उन्होंने जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताया। अपनी यात्रा का उद्देश्य और पंडित नेहरू की गलत नीतियों के बारे में लोगों को अवगत कराया। 10 जून को अमृतसर से पठानकोट होते हुए वे जम्मू में प्रवेश करने के लिए निकल पड़े। पठानकोट में उन्हें गुरदासपुर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर मिले। उन्होंने बताया कि उनकी सरकार ने उन्हें निर्देश दिया है कि वह उन्हें और उनके सहयोगियों को आगे बढ़ने दें और बिना परमिट के जम्मू कश्मीर में प्रवेश करने दें। डिप्टी कमिश्नर ने खुद हैरानी व्यक्त की कि आखिर गिरμतारी का जो आदेश उन्हें मिलने वाला था वह पलट कैसे गया।
करीब छह सप्ताह तक डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर में कैद रहे। यहां उनसे किसी को मिलने तक नहीं दिया गया। यहां तक कि उनके परिवार के लोगों को भी उनसे मिलने से रोका गया। आखिरकार 23 जून को जम्मू-कश्मीर में कैद के दौरान ही उनकी मौत हो गई। उनकी मौत आज तक रहस्यमय बनी हुई है।
डॉक्टर मुखर्जी अपने सहयोगियों के साथ डिप्टी कमिश्नर से मिलने के बाद रावी नदी पर बसे माधोपुर पहुंचे। जहां पुलिस की भारी संख्या मौजूद थी। यही रावी नदी पंजाब और जम्मू कश्मीर की सीमा बनाती है। नदी पर बने पुल पर अधिकारियों एवं लोगों ने डॉक्टर मुखर्जी एवं उनके सहयोगियों को विदाई दी। पुल के बीचो-बीच जैसे ही डॉ मुखर्जी और उनके सहयोगी पहुंचे तो वहां जम्मू- कश्मीर पुलिस की भारी संख्या उनका इंतजार कर रही थी। एक अधिकारी ने अपना परिचय कटवा के पुलिस अधीक्षक के रूप में दिया और उन्होंने मुख्य सचिव का एक आदेशी पत्र डॉ मुखर्जी को सौंपा। जिसमें लिखा था कि राज्य में आप के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया है। इस पर मुखर्जी ने उस अधिकारी को कहा कि मैं जम्मू जाना चाहता हूं। इस पर उक्त अधिकारी ने उनकी गिरμतारी का आदेश अपने जेब से निकाल कर उन्हें दिया। जिस पर जम्मू कश्मीर के पुलिस महानिरीक्षक पृथ्वी नंदन सिंह का 10 मई का हस्ताक्षर था। इस आदेश को पढ़ने के बाद डॉक्टर मुखर्जी जीप से नीचे उतर गए। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी, जो उस समय उनके निजी सचिव थे, एवं अन्य साथियों को वहां से लौटने को कहा।
गुरुदत्त वैद्य और टेकचंद ने उनके साथ गिरμतारी दी। आजाद व्यक्ति के रूप में अपने अंतिम संदेश में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी और अन्य सहयोगियों से कहा, ‘ पूरे देश को यह बताएं कि मैं आखिरकार जम्मू कश्मीर राज्य में दाखिल हो गया हूं। हालांकि एक बंदी के तौर पर और मेरी गैर मौजूदगी में मेरे काम को बाकी लोग आगे बढ़ाएं।’ इसके बाद करीब छह सप्ताह तक डॉ मुखर्जी जम्मू-कश्मीर में कैद रहे। यहां उनसे किसी को मिलने तक नहीं दिया गया। यहां तक कि उनके परिवार के लोगों को भी उनसे मिलने नहीं दिया गया। आखिरकार 23 जून को जम्मू-कश्मीर में कैद के दौरान ही उनकी मौत हो गई। उनकी मौत आज तक रहस्यमय बनी हुई है। जिस शेख अब्दुल्ला को जवाहरलाल नेहरू ने बचाया, क्योंकि डॉ मुखर्जी की मां ने अपने बेटे की रहस्यमयी मौत की जांच कराने वाला पत्र जब नेहरू को लिखा तो उन्होंने इससे साफ इंकार कर दिया। उसी शेख अब्दुल्ला को कुछ महीने बाद गिरμतार कर लिया गया। इसका सीधा अर्थ है कि डॉ मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को लेकर जो सवाल उठा रहे थे, वे जायज थे। जम्मू-कश्मीर खतरे में था। इसलिए कहा जाता है कि भारत की एकता और अखंडता के लिए डॉ मुखर्जी पहले शहीद होने वाले व्यक्ति थे। (हि.स.)।