अध्यात्म से सुरभित पुष्पों की पंखुड़ी
समीक्षक : संजय अनंत
( संगीता चौबे जी प्रवासी भारतीय है, कुवैत में रहती है, अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी मंच की संस्थापिका है)
संगीता जी की कृति *पंखुड़ी की पंखुड़ियाँ* को पढ़ने हेतु जब आप अपने हाथों में लेंगे.. आप अनुभूत करेंगे, किसी शिवालय में आरती का समय है और वहाँ से पवित्र शंख की ध्वनि मंद मंद पुष्प की सुरभि सम वायुमंडल में समाहित हो आप तक पहुँच रही है,
आप अनुभूत करेंगे,आप किसी मंदिर के प्रांगण में बैठे हो और मंदिर में अभी अभी आरती समाप्त हुई हो और वायु में श्रेष्ठ सुगंधित समिधा की गंध समाहित हो और वो आप तक पहुँच रही हो..
आप अनुभूत करेंगे, आप हरिद्वार में गंगा जी के तट पर हो, मंद मंद ठंडक लिए समीर बह रही हो और सामने के तट पर सैकड़ो दीपक गंगा जी में प्रवाहित किए गए हो..
आप अनुभूत करेंगे,किसी प्रवीण हाथों की उंगलियों ने वीणा के तारो को छु कर झंकृत किया हो और उसकी मधुर ध्वनि वातावरण में पूर्णिमा की चांदनी सम बिखरी हो..
आप अनुभूत करेंगे,वैदिक काल की कोई ऋषि कन्या उषाकाल में, किसी उपवन से, सुगन्धित पुष्पों को चुन अपनी टोकरी में रख,देव स्तुति हेतु यज्ञशाला में प्रवेश कर रही हो..
आप अनुभूत करेंगे, सभी देव गण संगीता जी की लिखी स्तुति से प्रसन्न हो कर इंद्रलोक के मानसरोवर में खिले अद्भुत सुगंध से सुरभित दिव्य कमल, संगीता जो अर्पित किए हो और इसी दिव्य कमल की पंखुड़ी संगीता जी के अंतर मन में समाहित हो गयी है, उनके सृजन में इसकी भीनी भीनी खुशबु है..
इसलिए वे अब संगीता चौबे ‘पंखुड़ी’ है..
अध्यात्म से सुरभित पुष्पों की पंखुड़ी है,संगीता जी का सृजन, भारत से दूर तन है किन्तु मन में भारत बसता है, मन में साधना के स्वर है, उस परम को विभिन्न रूपों में पुकारा है,
उनकी इस कृति का प्रथम चरण देव वंदना से ओत प्रोत है, किसी सनातनी के लिए तो मानो सब कुछ, इस में राम है,कृष्ण है,शिव है, हनुमान है , मातारानी है , गणेश जी है,इसके पश्चात वे स्मरण करती है अपने गुरु को, माता पिता, पति और अपने बच्चों को, अपने भैया और बहन को और फिर अपनी मातृभूमि को, जिस में उन्होंने जन्म लिया, उसे नमन करते हुए उनकी लेखनी बहुत भावुक हो जाती है,वे लिखती है..
सोना उगले तेरी माटी,धूल नहीं वो चंदन
चरण पूजता सागर तेरे, देश तुझे अभिनन्दन
हिन्दी में लिखती है, भाषा के प्रति सम्मान और गौरव होना स्वभाविक है, उनकी सरल किन्तु सार्थक कविता ‘हिन्दी बहुत महान’ इस संग्रह में है, हिन्दी को समर्पित उनके शब्द..
बसे हिन्दी में सब के प्राण
करें हम हिन्दी का सम्मान
विश्व में हिन्दी बहुत महान
भारत के पर्व जैसे राखी, मकर संक्रांति, दिवाली भी उनके शब्द संसार में याद किए गए है, प्रकृति और बाल मन को समर्पित रचनाएँ भी इस संग्रह में है
इस प्रथम चरण को पार कर जैसे जैसे आप संगीता जी के काव्य संसार में अपने पग आगे बढ़ाते जाएंगे, उनके रचना संसार में अधिक परिपक्वता दिखेगी, आप धर्म के मूल अर्थात अध्यात्म में प्रवेश करते है, प्रथम चरण में जो देव स्तुति है, स्वजन की स्मृतियां है देश भक्ति है ये सब कहीं पीछे छूट जाते है, जैसे ही आप उनकी जीवन पर, अंतर मन के भाव से सुरभित कविताओं को पढ़ते है तो केवल आत्मा, आत्मिक चिंतनऔर स्त्री मन के कोमल भाव ही शेष रह जाते है..
‘प्रीत का श्रृंगार तुम’और ‘प्रेम सेतु’ दोनों कविताएं हमें ये इंगित करती है की वे निश्चित ही एक स्थापित रचनाकार है, ये उनकी प्रतिनिधि रचनाओं में उल्लेखित होगी,
‘प्रीत का श्रृंगार तुम’, यदि आप ने नहीं पढ़ी तो निश्चित ही आप स्त्री रचित, श्रृंगार के रंग बिखेरती समकालीन उत्तम रचना से वंचित रह गए..
नेह का संबल लिए,प्रिय प्रीत का श्रृंगार तुम
भावनाओं का ह्रदय में, इक़ उमड़ता ज्वार तुम..
स्त्री के प्रेम का स्वरुप पुरुष से सर्वथा भिन्न होता है, उस के प्रेम में नारी का सौंदर्य सम्मिलित होता है, वह चाह कर भी उस से बच नहीं सकता, किन्तु नारी के प्रेम में केवल उसकी कोमल भावनाएं ही होती है, संगीता जी की ये कविता पढ़ते पढ़ते अनायास ही महीयसी महादेवी जी का स्मरण हो आया
तुम मुझ में प्रिय
फिर परिचय क्या..
कुछ वैसे ही श्रेष्ठ भावों का संकलन..
कविता में लय है, आप को पढ़ने में आनंद आएगा, कविता समाप्त होती है यह कहते हुए…
वेद ग्रंथो की ऋचा मै, मन्त्र सा उच्चार तुम
भावनाओं का ह्रदय मै, इक़ उमड़ता ज्वार तुम..
संगीता जी को भविष्य काल में उनकी इस रचना के लिए आने वाली पीढ़ी याद कर सकती है
इसी क्रम में ‘प्रेम सेतु’ और ‘प्राण की कामना’ है, संगीता जी का अपने प्रियतम के प्रति प्रेम पूर्ण समर्पित हो जाता है, कुछ पाने की कामना नहीं है, उसका होना ही अपने आप में सब कुछ है, कविता प्रेम सेतु में वे लिखती है
प्रेम सेतु पार कर तुझ
में समर्पित हुई हूँ..
प्रियतम नयन में है, यदि वो कान्हा है तो वे उनकी बांसुरी, किन्तु ये सामान्य देह आकर्षण नहीं है, कहीं इस से बहुत ऊपर, वे लिखती है
इस विकल से प्राण वेदी, की तुम्ही तो एक समिधा।
जाप मंत्रो की तपन,से उष्म बन पोषित हुई हूँ।
इसी क्रम में,’प्राण की कामना’ का उल्लेख न करना, संगीता जी के साथ अन्याय होगा ये स्त्री का अपने प्रियतम के प्रति पूर्ण समर्पण है
सात जन्मों तुम्हारी रहुँ ,
यहीं प्राण की कामना..
ये मीरा वाला प्रेम है, जहाँ कुछ भी पाने की कामना नहीं है, प्रियतम ही परमपुरुष का स्वरुप है, संगीता जी की भावनाएं अपने उच्चतम शिखर पर है, उनके हर शब्द मानो उनके इस दिव्य समर्पण का यशोगान कर रहें हो, प्रमाण देखिए
जी रही हूँ अभी तक इस आस में
बांध लोगे मुझे तुम प्रणय-पाश में..
ये उर्दू अदब वाला इश्क नहीं है, जो एक दिन तलाक और हलाला की गन्दी नाली में समाप्त होता है
यहाँ निश्चल प्रेम है, सात जन्मों तक साथ रहने की कामना है, यहाँ प्रेम में स्व का अभिमान भस्म हो रहा है, सब कुछ एकाकार है
नेह दीपक जला सिंदूरी याद का
देहरी पर सजल नैन से रख दिया..
संगीता जी क्या लिखूँ क्या कहु, क्या अब भी कुछ बाकी है कहने को..
संगीता जी के काव्य संसार में विचरण करते हुए हम कुछ और आगे बढ़ते है, कृष्ण राधा जी पर बहुत कविताएं लिखी गयी, रसखान सूरदास मीरा के युग से आज तक, कृष्ण आकर्षण से मुक्ति संभव ही नहीं है, संगीता जी लिखती है
जो चराचर इस जगत में, एक अनूठा नाम है
राधिका के उर में बसा मुरली मनोहर श्याम है..
इस ख़ज़ाने में इतने बेशकीमती नायाब मोती है की किसी को भी कमतर नहीं समझा जा सकता, संगीता जी की कुछ रचनाएँ जैसे,’नैनो की चितवन’, ‘बड़े अच्छे लगते है’, ‘प्रेम सुधा’, ‘माटी का तन’, ‘सत्य का पथ’, ‘विजय गीत’ समकालीन हिन्दी काव्य की श्रेष्ठ रचनाएँ मानी जा सकती है,
इस संग्रह के अतिरिक्त संगीता जी की कुछ अप्रकाशित रचनाओं को पढ़ने का सौभाग्य भी मुझे प्रारब्ध ने प्रदान किया, सभी प्रेषित रचनाएँ पढ़ी, इनमे से कुछ निश्चित ही उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ मानी जाएंगी, मानो मन को और मथा गया है, इस परिश्रम से जो नवनीत ऊपर आया, वो ये संगीता जी की उत्तम रचनाएँ है
राष्ट्रकवि ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखा और संगीता जी कागज़ की अभिलाषा लिख रही है, एक कोरा कागज़ क्या सोचता है, एक अलग तेवर की कविता, तयशुदा विषय से हट के, वे लिखती है
मैं एक कोरा कागज़ हूं,
मुझे कोरा ही रहने दो ।
कोरा कागज़ आप के सुख-दुख, छल-कपट, आंसू-आनंद सब से परे कोरा ही साफ पाक रहना चाहता है, इंसान की तरह नहीं बनना चाहता, संगीता जी, जो मानो कोरे कागज़ को शब्द प्रदान करती है, वे लिखती है…
मुझ पर शब्द उकेर कर
भावना की स्याही उड़ेल कर
नाम तुम्हारा
इतिहास के पन्नों पर
स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा
किन्तु
मेरा दामन नापाक हो जाएगा
मेरा भविष्य
रद्दियों की
टोकरी में कहीं खो जाएगा
मैं पाक ही अच्छा हूं
मुझे पाक ही रहने दो
बेहतरीन कविता संगीता जी, बधाई आप को…
एक और कविता उनकी, जिस में संगीता जी युवा को, पूरे मानव समाज को. जीवन संघर्ष में आगे बढ़ने की, आने वाली चुनौतियों को दृण संकल्प से जीतने की प्रेरणा देती है, उनके ये शब्द प्रेरणा से भरे हुए है
चुनौतियों के प्रभाल पर, लक्ष्य की प्रत्यंचा चढ़ा ।।
दृढ़,सजग, संकल्पकृत्, कदम बढ़ा,कदम बढ़ा ।।
वे आगे लिखती है..
चक्षु तेरे अश्रु लिप्त, क्यूं हृदय तेरा विदीर्ण है,
क्यूं किसी के कथन से, हुई सोच तेरी संकीर्ण है ?
स्वप्न-कोठरी से बहिर्मुख हो, अन्तरतमशक्ति जगा । दृढ़,सजग, संकल्पकृत्, कदम बढ़ा,कदम बढ़ा
यौवन की समाप्ति पर जैसे ही बालों में सफेदी आती है और बुढ़ापा बिना बुलाए दरवाज़े पर दस्तक देता है, फिर अपने-पराए सब साथ छोड़ देते है , इनके दर्द को बयां करती संगीता जी की बहुत ही जानदार कविता
जीवन की ढलती शाम
नैराश्य और अवसाद की
काली चादर ओढ़े
हृदय की दीवारों से
रिसती हुई
अकेलेपन की कुंठा के
असीम बोझ से दबे
अश्रुपूरित नयनों की
कोर पर छलके नीर को
पोंछने का अनवरत प्रयत्न करती है….
स्त्री के त्याग, संघर्ष पर बहुत कुछ लिखा गया, संगीता की ये कविता कुछ हट कर है क्यों की ये हम पुरुषों को समर्पित है, एक कहानी जो सब जानते है, पर कहना कोई नहीं चाहता, पुरुष का त्याग कभी नहीं दिखता, वो नींव के पत्थर की तरह जमीन ने दबा रहता है..
सुबह से लेकर रात तक
संध्या से लेकर प्रभात तक
चुप्पी से लेकर बात तक
मन से लेकर गात तक
घर से लेकर हाट तक
जागने से लेकर खाट तक
जिम्मेदारियों के अहसास से भरे होते हैं,
ये पुरुष भी न… पता नहीं किस मिट्टी के बने होते हैं ..!!!
शब्दों का कम प्रयोग करते हैं
पर हर कार्य में सहयोग करते हैं
चेहरे से पढ़ लेते हैं उर के भाव
मन की आंखों का उपयोग करते हैं।
कभी झुंझलाते हैं , कभी चिढ़ते हैं
कभी बच्चों सा हठ योग करते हैं
किंतु फिर अगले ही पल
मुस्कान की चादर ओढ़ लेते हैं
ये पुरुष भी न… पता नहीं किस मिट्टी के बने होते हैं ..!!!
संगीता जी के इस काव्य संसार की यात्रा बड़ी रोचक रही, वे बहुमुखी है, उन्हें किसी ‘वाद’ या ‘प्रकार’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, विषय की, लेखन की, छंद प्रबंधन की, भावनाओं की, विविधता है,
वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रहती है, इसलिए विस्तृत अनुभव भी है
किन्तु जब वे अपने अंतर मन से लिखती है चाहे वो उनका प्रिय प्रियतम हो, जीवन के प्रति उनकी सोच हो, या अध्यात्म.. पाठक को अपने साथ गहरी घाटी में जाती है, चिंतन की गहराई दिखाई देती है, इस तेवर से जो कुछ उन्होंने लिखा, वो उन्हें,एक स्थापित, श्रेष्ठ रचनाकारों की श्रेणी में खड़ा करेगा, उन से भविष्य में इसी तरह की कविताओं की अपेक्षा है, हम उन से महीयसी महादेवी जी के पद चिन्हो पर चलने की अपेक्षा करते है , उनके काव्य का मूल चिंतन ,उसे व्यक्त करने हेतु शब्दों का चयन, उनकी काव्य शैली उन्हें इसी परम्परा का अनुगामी मानने को सहमत करती है, उन्होंने खुद ही अपने आप को समझा है, तभी अंतर मन को लिखा है, वे खुद कहती है
सुखी पड़ी जमीं पर, अश्कों भरी कहानी
समझो अगर तो मोती, वरना फ़क्त है पानी…
संगीता जी, बस इसे याद रखियेगा, भविष्य में लिखते समय..
*समीक्षक*
*संजय अनंत ©*
*पुस्तक का नाम : पंखुड़ी की पंखुड़ियां*
(काव्य संग्रह )
*लेखक का नाम : संगीता चौबे ‘पंखुड़ी’*
प्रकाशक : आईसेक्ट पब्लिकेशन, अरेरा कॉलोनी ,भोपाल (MP)