बिलासपुर (mediasaheb.com)| लखनऊ साहित्य सम्मेलन में श्रीकांत त्रिवेदी जी से परिचय हुआ,उन्होंने सप्रेम मुझे अपनी पुस्तके भेंट की, जिनका विमोचन मेरे व मंच पर उपस्थित अतिथियों द्वारा उस संध्या किया गया, कुछ और विद्वत साहित्यकारों ने अपनी कृतियां मुझे इस आशा से भेंट की मै इनकी समीक्षा करु..
लखनऊ एयरपोर्ट पर अपना बैग चेक किया,तो देखा की कुल बारह पुस्तकें मुझे दी गयी, सब पढ़नी है और प्रयास रहेगा की सब पर लिखू
*श्रीकांत जी व उनके श्वसुर स्व. युगलकिशोर त्रिपाठी के अथक परिश्रम व शोध के सागर मंथन से प्रगट हुआ अमृत कलश है*
*आर्यश्रेष्ठ: एक शोधग्रन्थ*
*अद्भुत, अकल्पनीय,विलक्षण शोध कार्य*
जो सनातन के मर्म को, उस में लिखी बातों को प्रमाण सहित स्वीकार करना चाहते है,उनके लिए यह कृति निश्चित ही पठनीय है व संग्रह के योग्य है
मुझे इसे पढ़ते समय अनेक बार ऐसा लगा की कुछ विस्मृत हो रहा है या पूर्णता से समझ नहीं आ रहा,तो उन तथ्यों को दोबारा पढ़ना पड़ा
इस में रस नहीं है,किन्तु शुष्क ज्ञान का असीम भंडार है, उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास है जो सनातन पर विश्वास रखने वाले के मन में उठता है, पर समाधान नहीं होता
मनु की कथा से ले कर जल प्रयल तक और पुनः नवीन सृष्टी सृजन से रामायण काल तक..
जो कुछ हमारे पुराणों में या अन्य ग्रंथो में वर्णित है वो क्या कपोल काल्पनिक है या उसका कोई आधार भी है,जो कुछ वर्णित है क्या उनका इस भू लोक में कही स्थान है भी या नहीं?
हम सनातनी परिवर्तन को शाश्वत मानने वाले जन है, हमारे पूर्वजों ने कभी भी अपना इतिहास नहीं लिखा और न ही अपने संस्मरण या पश्चिम सम कोई डायरी इत्यादि
अब इसका परिणाम ये हुआ की हम उस प्राचीन काल के विषय में नहीं जानते, उत्तर वैदिक काल या उसके बाद के काल के विषय में भी कम ही जानते है
जो कुछ विदेशी पर्यटक विभिन्न कालखंड में आए,उनके लिखें विवरण या आक्रमण करने वालों के साथ आए दरबारी लेखको द्वारा जो कुछ भी सच झूठ लिखा गया, वही मूलतः इस देश में इतिहास लेखन का आधार बना, कुछ शिलालेख या दुर्लभ ग्रंथ भी है पर उनकी संख्या इतनी नहीं की हम उन प्रश्नों का उत्तर दें सके, जिन पर इतिहासकार मौन साध लेते है या पुराणों व अन्य ग्रंथो में उल्लेखित तथ्यों को कल्पना बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते है
इस कृति को पढ़ रहा हूँ तो आचार्य चतुरसेन की अमर कृति ‘वयं रक्षामः’ याद आ गयी, वैसे तो ये एक उपन्यास है, रावण के चरित्र पर किन्तु इस में आचार्य चतुरसेन ने प्रयास किया है की रामायण में वर्णित काल को, स्थानों को, उस कालखंड रहने वाली विभिन्न मानव सभ्यता,जिसमें उनके अनुसार आर्य व रक्ष संस्कृति का संघर्ष, या फिर नाग, गन्धर्व या वानर कौन थे, पर आप इसे सत्य नहीं मान सकते क्यों की ये एक उपन्यास है, आचार्य स्वयं भी कोई दावा नहीं करते, ऐसा ही प्रयास हमें आर्य समाजी महान लेखक गुरूदत्त वैद्य की कृति ‘अवतरण’ में भी देखने मिलता है, मैंने स्वयं अपनी कृति (वैश्विक सनातन संस्कृति : साकार होते स्वप्न )में आधुनिक विज्ञान और प्राचीन वैदिक काल के विज्ञान पर तुलनात्मक अध्यन कर आलेख ‘सनातन ज्ञान परंपरा व आधुनिक विज्ञान’ लिखा है
ज़ब हम कक्षा दसवीं में थे, तब हमारे गृह नगर में डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर,जो महान पुरातत्वविद् थे,पधारे थे,उनके उद्बोधन का विषय था हमारे शास्त्र में वर्णित सरस्वती नदी, उन के कठिन परिश्रम और शोध के पहले नेहरू वादी वामपंथी इतिहासकारो ने इसके अस्तित्व को ही नकार दिया था ,पर आज सरस्वती नदी के उदगम, उसके बहने के मार्ग और उसके विलुप्त होने के कारण सब पर शोध हुआ और प्रमाणित हुआ की सरस्वती नदी का अस्तित्व था
कृति आर्यश्रेष्ठ:शोध ग्रंथ में इसी प्रकार के अनेक विषय, विस्तार और प्रमाण के साथ, विश्व इतिहास के विशद अध्यन और विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं की जानकारी व सनातन धर्म के विभिन्न ग्रंथो में उल्लेखित घटनाओ, व्यक्तियों में साम्यता,बहुत शोध के पश्चात वर्णित है
उन्होंने विद्वान एच एच विल्सन को उद्धृत किया, जिनके अनुसार ‘ Hindus of Vedic age even head attained to an advanced staged of civilization ‘
इस में कोई दो मत नहीं की वैदिक काल में ही हम सनातनी उच्च कोटि की सभ्यता विकसित कर चुके थे, इस पुस्तक में हमारे वैदिक काल के अति विकसित सभ्य समाज व उस समय विज्ञान में हुई प्रगति को भी विस्तार से समझाया गया है, लेखक ने अपने तथ्यों को पुष्ट करने,पश्चिम के विद्वानों को अनेक बार उद्धृत किया है,जो सही है
जैसे प्रोफेसर मैकडोनिल के अनुसार ‘विज्ञान के लिए भी यूरोप भारत का ऋणी है’
लेखक के अनुसार अफ्रीका का प्राचीन नाम ‘शिवदान’ था या दशग्रीव रावण जो रक्ष संस्कृति को पूरे विश्व में स्थापित करना चाहता था,उस ने ब्रम्ह देश यानि वर्तमान बर्मा तक अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया,उस ने प्रागज्योतिषपुर यानि आज का बंगाल व कामरुप यानी आज का असम, पर भी विजय प्राप्त की..
लेखक ने शोध कर यह तथ्य पाठकों के समक्ष रखना चाहा है की शिव लिंग की पूजा विश्व के अनेक देश, विभिन्न कालखंड में विकसित सभ्यताओं में प्रचलित थी
लेखक इस बात पर दृण आस्था रखता है की शुक्राचार्य भी रूद्र के उपासक थे और उन्होंने काव्य मंदिर का निर्माण करवाया था जो बाद में काबा कहलाया, इसका भविष्य पुराण में मक्केश्वर के नाम से उल्लेख है
कुछ तथ्य तो वास्तव में आश्चर्यचकित करने वाले है, जैसे हम सब मूल पुरुष मनु की संतान माने गए है मनु जर्मनी में मन्न या मनस है और इंग्लिश ने मैन है
लेखक उद्धृत करते है
‘The English ‘Man’ and German ‘ Mann’ appear also to be a kin to word ‘Manu’ as the German ‘ Menes’ present close resemblance to the ‘Manush’ of Sanskrit
लेखक का प्रयास व शोध वंदनीय है इस पुस्तक के पठन के पश्चात पाठक के मानस पटल पर प्राचीन भारत का सम्पूर्ण विश्व के साथ सम्बन्ध, सहअस्तित्व और हमारी संस्कृति का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है
पुस्तक चुंकि दो लेखकों द्वारा भिन्न भिन्न कालखंड में लिखी गयी इसलिए पुस्तक में एकरुपता का आभाव है
पुस्तक के प्रारम्भ के कुछ आलेख हमें वैदिक काल के भारत व विश्व की विषय में जानकारी देते है,फिर लेखक हमें वैदिक काल में हुई विज्ञान की प्रगति से अवगत करवाता है
किन्तु इस के बाद लेखक रामायण की कथा अपने शब्दों में प्रस्तुत करता है, मेरे विचार से इस पर एक अलग पुस्तक होनी चाहिए थी
श्रीकांत जी व स्व.युगल किशोर जी ने बहुत परिश्रम है, उनका परिश्रम नमन योग्य है
आशा है, सुधि जन इस कृति के महत्व को समझेंगे
यदि आप वैदिक भारत व उसकी अति सभ्य समाज की झलक देखना चाहते है तो निश्चित ही ये पुस्तक आप को निराश नहीं करेगी और इस पुस्तक में गहन मंथन के पश्चात प्राप्त नवीन तथ्यों के नवनीत का स्वाद, आप के मन को आनंदित करेगा, गर्वित करेगा
*पुनः श्रीकांत त्रिवेदी जी को बधाई*
*इस महत्वपूर्ण कृति को प्रकाशित करा निश्चित ही आप ने हिन्दी में शोधकार्य की परम्परा को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया*
समीक्षक
*संजय अनंत©*
पुस्तक का नाम
आर्य श्रेष्ठ : एक शोधग्रन्थ
लेखक : युगल किशोर त्रिपाठी
श्रीकांत त्रिवेदी
प्रकाशक: नीतू आनंद पब्लिकेशन, लखनऊ