रायपुर (mediasaheb.com)| 16 कलाओं से युक्त पूर्णावतार श्रीकृष्ण अप्रतिम हैं। वे जब जिस राह चले, उस पर के लिए एक मिसाल कायम की। उद्धव के कृष्ण ज्ञानी हैं, तो राधा के कृष्ण प्रेमी हैं। सूर के बाल गोपाल हैं, तो तिलक के अनासक्त कर्मयोगी हैं। कृष्णमूर्ति के कृष्ण दार्शनिक हैं तो ओशो के कृष्ण आनंद एवं उत्सव के जीवंत प्रतीक। आप ढूंढें, तो एक कृष्ण आप के लिए भी मिल जाएंगे। कृष्ण के 108 से ज्यादा नाम थे मुरलीधर से गिरधर तक, नंदगोपाल से नारायण तक और सहस्त्रजीत से रणछोड़दास तक। हम दो नामों पर झगड़ रहें हैं, मित्रगण व्हाट्सअप पर जहर उगला रहे हैं, ये रहेगा, ये नहीं रहेगा। पर जरा ध्यान दें, श्रीकृष्ण ने अपने सैकड़ों नामों में से कभी किसी नाम पर आपत्ति नहीं की और वो हर व्यक्ति के लिए किसी न किसी रूप में सहज उपलब्ध हैं। जीवन में इतनी विविधता और ऐसी समग्रता ही उन्हें अप्रतिम बनाती है। कृष्ण इतने सर्वव्यापी कैसे हैं, इसके लिए उनके जीवन पर ध्यान देना होगा।
कारागार में जन्मे, पराए घर मे पले, बचपन से ही हर पल मृत्यु मंडराती रही, कभी पूतना के रूप में, कभी बकासुर के रूप में, तो कभी कालिय नाग। किन्तु कृष्ण निद्र्वंद रहे, मटकी फोड़ते रहे, माखन खाते रहे, बांसुरी बजाते रहे, रास रचाते रहे। जितनी कठिनाइयों की कोई कल्पना कर सकता है, उस से ज्यादा कठिनाइयों के बीच भी कन्हैया ने बालपन का जो आनंद लिया, वैसा आज तक और कौन ले पाया? आगे भी राधा रानी से बिछुड़े, मामा को मारना पड़ा, मथुरा से भागना पड़ा, रणछोड़दास नाम पड़ा, सामने कुल का नाश हुआ, एक पेड़ के नीचे व्याध के तीर से आहत प्राण त्यागने पड़े। जितने दुखों की कल्पना की सकती है, उससे ज्यादा पाए, पर कभी होठों से मुस्कराहट न गई।-जितने आनंद से उन्होंने जीवन से जिया शायद वह भी किसी को नहीं मिला।
दूसरी ओर चाहे कालिय दमन हो, इंद्र का मान मर्दन हो, शिशुपाल वध हो, रुक्मणि हरण हो, कालयवन का अंत हो या महाभारत हो, सदा विजय प्राप्त की पर कभी भी…. कभी भी, अट्टहास नही किया। कभी भी शब्दों में जहर नहीं पिरोया।
कृष्ण दुख में भी मुस्कराते हैं और आनंद में भी स्थिर चित्त हैं।-हमारे जीवन मे अशांति इसलिए है क्योंकि हम दुख में / हार में / विछोह में टूट जाते हैं, और सफलता में / सुख में / जश्न में फूल जाते हैं। जब किसी अन्य से प्रतिद्वंदिता का भाव, हमारे कर्मों की दिशा तय करने लगता है तो हम कृष्ण के सनातन जीवन दर्शन से दूर चले जाते हैं।
उनका जीवन यह भी संकेत है कि जीवन वर्तमान में है, भूत की यादें, वर्तमान के पथ की बाधा नहीं बन सकतीं। एक बार ब्रज से मथुरा आने पर न फिर कभी ब्रज गए, न गोपियों के संग रास का स्मरण किया। जिस मोड़ से गुजर गए, उस पर वापस नही आये। हम अतीत से सबक सीख सकते हैं (सीखना चाहिए), पर उसमे घोंसला बना कर रह नही सकते। हर नया दिन, कोई नई चुनौती ही ले कर आएगा, वो पहले से बेहतर भी हो सकता है बदतर भी हो सकता है, पर उसको वहीं जीना है और मुस्करा कर जीना है।
हम कई बार परेशान होते हैं समय से पहले हमें किसी ने बताया क्यों नही। पर असल समस्या यह है, कि समय आने पर भी कोई कुछ बताने समझाने की कोशिश करता है तो हम कभी हड़बड़ाहट में, कभी घबराहट में, कभी निराशा में, कभी जोश में, कभी उत्तेजना में और कभी खीज में सुनने से मना कर देते हैं।
जरा सोच कर देखें क्या कृष्ण पहले से अनुमान लगा कर अर्जुन को सिखा पढ़ा कर कुरुक्षेत्र में नहीं ला सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्यों ? क्योंकि वो बताना चहते थे कि वही विचार जीवन के लिए उपयोगी होता है जो स्वयं जीवन के संघर्ष से उपजे। जो बातें हम जितने कठिन समय में सीखते हैं वो उतने गहरे से याद रहती हैं। इसीलिए कुरुक्षेत्र की रणभूमि में प्रगट हुआ गीता का ज्ञान अप्रतिम है। जीवन का संघर्ष ही विचार की वास्तविक भूमि है।
एक और विडम्बना है कि कई बार हम किसी को कुछ समझाने की कोशिश करते हैं, पर वो सुनता नहीं है तो हम निराश हो जाते हैं, साथ छोड़ देते हैं। कृष्ण ऐसे समय के लिए भी सही राह दिखाते हैं। क्या वो युधिष्ठिर को जुआ खेलने से रोकने का प्रयास नहीं सकते थे, पर उन्हें पता था कि उस समय युधिष्ठिर सुनने की मुद्रा में थे ही नहीं। पर कृष्ण ने दूरी नहीं बनाई, ज्योही द्रौपदी ने पुकारा तो तुरंत प्रगट हुए। हम समय से पहले कहने की कोशिश करते हैं, और जरूरत के समय साथ छोड़ कर किनारा कर लेते हैं। कृष्ण का दर्शन ऐसे में रास्ता दिखाता है।
इस सबके बीच एक प्रश्न बरबस मन में आता है कि कृष्ण जब घर घर पूजे जाते हैं, तो आखिर क्यों हम न तो कृष्ण की तरह प्रेम कर पाते हैं, न युद्ध। और बिना कुछ किये भी बी पी, शुगर बढ़ा लेते हैं और कभी कभी तो डिप्रेशन तक का दरवाजा खटखटाने लगते हैं। इसका उत्तर एक विडम्बना में छुपा है। कृष्ण के जीवन का वृतांत भागवत पुराण में है और विचार सार गीता में। विचार को समझने से आचरण के आधार का पता चलता है और आचरण को देखने से विचार की प्रामाणिकता का। पर हम करते क्या हैं? गीता को हमने लाल कपड़े में लपेट कर न्यायालय में कसम खाने के लिए रख दिया है। बड़ी कोशिश है कि हाथ से सीधे संपर्क न हो, बीच मे पर्दा रहा आये। सत्य और संकल्प के बीच, अक्सर इसी पर्दे में स्वार्थ छुपा होता है। दूसरी ओर अपने कर्मों को सही बताने के लिए हम अक्सर कृष्ण लीला की कहानियों को आधार बना कर तर्क करने लगते हैं। अपनाना विचार को था, आराधना लीला की करनी थी। हम अपना लीला को हरे है और विचार को कपड़े में लपेट कर, दूर से अगरबत्ती लगा के प्रणाम कर लेते हैं। यही कारण है कि बात धर्म की करते हैं, पर टैक्स की चोरी करते हैं। सेवा में समर्पण, नौकरी में निष्ठा और व्यापार में ईमान कम पड़ जाता है। जब तक कर्म और विचार में ऐसा भटकाव रहेगा, अशांति बनी ही रहेगी। परन्तु जब विचार, कर्म का पथ प्रदर्शित करेगा तो कोई दुविधा नहीं रहेगी।
विचार आधारित कर्म को अपनाना, सदा संतुलित बने रहना एवं जीवन की समग्रता का सभी परिस्थितयों का आनंद व उल्लास के साथ सम्मान करना बहुत कठिन है लगभग असंभव। परन्तु प्रयास तो कर ही सकते हैं। आइए, इस जन्माष्टमी, प्रयास का संकल्प लें।
Tuesday, April 29
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