– आचार्य रतनलाल सोनग्रा
महाराष्ट्र के प्रख्यात इतिहास संशोधक, लेखक और भविष्यकार भा.ल.ठाणगे जी ने (पुणे) लोक क्रांतिकारक प्रसिद्ध अण्णा भाऊ साठे, के जीवन पर और इनके साहित्य निर्मिती पर महत्वपूर्ण लेखन कार्य किया है |
इस देश में वर्ण, जात, नाम का एक भीषण वास्तव है| जो पहले ही हमें बंधनों में जकड़ लेता है| ऐसे ही जातियों के समूह मतलब अदृश्य दीवारों के स्वतंत्र राष्ट्र, स्वायत्त राज्य अपनी आर्थिक स्थिती कितनी भी खराब हो, इनका सम्मान ओर कहीं हो या न हो, पर अपनी जाति में उसे बहुत महत्त्व मिलता है| बाहर अपने स्वामी से वह अपमानित होता हो उनकी लात खाता हो परन्तु फिर भी अपनी जाति में वह ‘पंच’ की भूमिका में स्वयं को ‘राष्ट्रपति’ समझता है| कुछ जातियों के काम जैसे जन्म से ही निश्चित होते है वैसे ही ‘कुछ’ के ‘पद’ भी शासन में निश्चित होते हैं| कुछ जातियों पर अपराधियों की ‘तृप्तमुद्रा’ अंकित होती है| उन्हें ऐसा व्यवहार करने के लिए मजबूर करने वाली व्यवस्था,उन्हें हमेशा बांधे रखती है |
१ अगस्त १९२० बंटे गांव में ‘मातंग’ कुल में अण्णा भाऊ साठे जी का जन्म हुआ| घर में कुछ भी नहीं था|इसलिए ‘केवल सिगड़ी जलाने तक ही घर था, और बाकी पूरा जंगल..’ जन्मतः उन्हे बुरी हालातो ने चालकी भी सीखा दी| स्कूल में विद्या प्राप्त न हो सकी परंतु जीवन ने उन्हे बहुत कुछ सिखाला दिया| गरीबों का राज्य लाने के लिए लड़ने वाले क्रांतिसिंह नाना पाटिल जी कि तुकाराम मतलब अंण्णा भाऊ साठे जी से सेवा करवातें थे| छोटे बच्चों को भी इस अन्याय के राज़ व्यवस्था को बदलना चाहिए, ऐसा लगता था| क्योंकि कोई भी कारण न होते हुए भी, पुलिस इनके पीछे लग जाती थी…जिंदगी को बदलने के लिए साठे परिवार ने मुंबई की तरफ रुख किया| ‘मुंबई’ एक सही अर्थ में विभिन्न लोगों की इससे मिश्रित हुई नगरी बन गयी थी| यहाँ पर मुंबईकर सिर्फ रास्ते पर एक होते हैं और बाकी सभी जगह सभी जातियों की बस्तियां, गलियाँ, झोपड़पट्टियां, चौंक, सोसायटी, नगर और अपने अपने जाति के समाज के मंदिर थे |
‘साम्यवादी आंदोलन’
मुंबई बड़े बड़े कारखानों की कपड़ा उद्योग की नगरी थी| मज़दूरों की बहुत बड़ी संख्या परळ, लालबाग के आसपास रहती थी| इस परळ और लालबाग की बस्तियों में सत्यशोधक की हलचल, साम्यवादी हलचल काफी प्रभावशाली थी| ‘लालबावटा’ यह मज़दूरों का दाता और त्राता हुआ करता था| तुकाराम उर्फ अण्णाभाऊ जो भी काम मिले, मजदूरी मिले उससे अपना भरण पोषण करने लगे| कभी माली का काम, कभी नौकर का, रोजदारी पर मजदूरी, कुत्तों को संभालना| सिर्फ जिंदगी जीने के लिए जद्दोजहद कर रहा थे| यह माटुंगा में लेबर कॅम्प में ‘लालबावट’ के कार्यकर्ता के पास आ आए और उन्हें इस जगह का रहस्य पता चला| एक जागतिक विचारधारा के साथ उनका संबंध जुड़ा, ‘जग की सभी मज़दूरों एक हो, क्योंकि गँवाने के लिए तुम्हारे पास कुछ भी नहीं!’ यह तत्वज्ञ, कार्ल मार्क्स की घोषणा सभी दूर घूम रही थी| मार्क्स बाबा के तत्वज्ञान को श्रमिकवर्ग बड़े ही आशा की दृष्टि से देख रहा था|
सच्ची मुक्ति
आज तक संसार के बड़े बड़े ज्ञानी लोगों ने, ऋषियों ने, आचार्य ने, तत्वज्ञानियों ने, जग क्या है? कैसा है? इसका अर्थ क्या है? किसने बनाया है? जन्म से पहले और जन्म के बाद आदमी का क्या होता है? इसका विवेचन किया है, पर यह दुःखमय जगत को कैसे बदलें| यह किसी ने नहीं बतलाया| तथागत बुद्ध ने जगत के दुःखों का विचार किया, उपायों पर विचार किया और ‘मध्यम मार्ग’ दिखायाः
उसके बाद १९ वें शतक में कार्ल मार्क्स ने दुःखों पर उपाय के रूप में साम्यवाद का विचार सभी के सामने प्रस्तुत किया… अभी तक दुःखी, कष्टी, श्रमिक लोगों को प्रत्यक्ष रूप से किसी ने कुछ नहीं दिया! किसी ने ‘प्रेम’ बांटो यह कहाः किसी ने कहा कि ‘नाम’ जपने से ही साधक बन सकते हैं, किसी ने कहा कि अगले जन्म में पुण्य कमाने का आश्वाशन दिया| परन्तु प्रत्यक्ष रूप में अन्त, वस्त्र, स्थान और प्रकाश इसे कैसे प्राप्त करें, यह साम्यवादी तत्वज्ञान ने हीं बताया|रशिया, चीन और छोटी बड़ी राज्य, राष्ट्र में इससे बदलाव आए| आधा संसार मुक्त हुआ है |
इस तत्वज्ञान के प्रचार के लिए, मानवता के उद्धार के लिए, हजारों कार्यकर्ता अपना सबकुछ छोड़कर… जिस माध्यम से भी समानता का प्रचार हो सके – मनुष्यता का आविष्कार हो सके, मुक्त समाज जीवन का पुरस्कार कर सके, वे सभी गीत, गायन, पोवाडे, नाटक, कादम्बरी, लोकनाट्य इन सभी का उपयोग अण्णा भाऊ जी ने किया… बुद्ध और मार्क्स इनके तत्वज्ञान को समझने वाला, इसी के साथ भारतीय जातिवाद के मर्म को जीने, और समझने वाला एक ‘महानायक’ आया, डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ! उन्होंने लालबाग के हनुमान थिएटर में अण्णाभाउ साठे जी का देशभक्त घोटाले वग दिखा और प्यार से उन्हें अपने गले लगा लियाः अण्णाभाऊ साठे जी ने लोकप्रियता का की ऊचाईयों को छुआ| संयुक्त महाराष्ट्र की लड़ाई में भी उतरे और –
‘जग बदल घालुनि घाव ! सांगुनि गेले मला भीमराव!’
(दुनिया बदलने को के लिए आगे बढ़ो ऐसा कहकर गए मुझे भीमराव)
उन्होंने यह महागर्जना की – इस लड़ाई में मैं भी सहभागी था| साक्षीदार भी| अपने ‘फकीरा’ उनकी पुस्तक की एक प्रति स्वयं अण्णा भाऊ जी ने मुझे उपहार स्वरूप दी| अमर शेख जी ने उनका ‘कलश’ यह काव्यसंग्रह मुझे दिया| गव्हाणकर और वा. वि. भट जी ने प्र अपनी रचनाएं भेज दी| लाखों लोग बेखौफ और बेफाम होकर उनके कार्यक्रम देखते थे| अण्णा भाऊ जी ने ‘फ़कीरा’ यह चित्रपट निकाला| यशवंत राव चव्हाण जी ने उनकी बहुत तारीफ की| परंतु अण्णा भाऊ कर्ज और कौटुम्बिक कलह में फंस गए| अत्यंत शोकाकुल अवस्था में वे गए| हम मृतपूजक संस्कृति के लोग अब उनके अनेक गुणों को स्मरण करके ‘उत्सव’ मनाते हैं| कभी साहित्यकारों का विस्मरण न होने दें, उनका साथ न छोड़े ! ( रतनलाल सोनग्रा)