फ़िल्म: जाने भी दो यारो
बिलासपुर (mediasaheb.com), आज से ठीक 41 वर्ष पूर्व यह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, भारतीय सिनेमा मे यह फ़िल्म साहित्य की व्यंग्य (satire )विधा का रुपहले परदे पर सजीव चित्रण है, इस तरह की फ़िल्म , इतनी सफलता के साथ पुनः फिर कभी नहीं बनी, यदि आप सुधि पाठकों की स्मृति हो अवश्य कमैंट्स मे लिखना
तो मित्रो ऐसा है की इस फ़िल्म शीर्षक ही दो अर्थो वाला है
जाने भी दो यारों.. मतलब चलो छोड़ो,परवाह मत करो take it easy..
और दूसरा
जाने भी दो यारों.. मतलब मरना भी है यारों..
ये फ़िल्म भारत वर्ष के किसी भी महानगर का यथार्थ है, आप हॅसते हॅसते उस सत्य को अनुभूत करेंगे, जो समाज की सच्चाई है, यहीं व्यंग्य (satire ) की ताकत होती है, आप हॅसते हॅसते शहद के साथ कड़वी सच्चाई की दवा निगल जाते है
और बड़ी सच्चाई, इस फ़िल्म मे ओमपुरी व नसरुद्दीन शाह को छोड़ बाकी सभी फ़िल्म इंस्टिट्यूट के नए आर्टिस्ट थे और इतने वर्षो बाद हम यह कह सकते है इस फ़िल्म ने इन सभी को भारतीय सिनेमा मे स्थापित कर दिया..
जैसे पंकज कपूर, नीता गुप्ता,विधु विनोद चोपड़ा,राजेश पूरी (हमलोग वाले लल्लू) दिवंगत सतीश कौशिक, दिवंगत रवि वासवानी और महान हास्य कलाकार सतीश शाह..
फ़िल्म बहुत ही मज़ेदार है, खूब हँसाती है, गुदगुदाती है, और साथ मे हमारे समाज का हमारी सड़ चुकी व्यवस्था का यथार्थ भी सामने रखती है…
मूल कथा है दो करोड़पति बिल्डर की तरनेजा (पंकज कपूर )और शराबी आहूजा (ओमपूरी ) की, जिनकी आपस मे गला काट प्रतिस्पर्धा है, सतीश शाह एक भ्रष्ट नगर निगम कमिश्नर है, जो बिल्डरों से रिश्वत ले कर उन्हें हर तरह की छूट देता है, परमिशन देता है
एक समाचार पत्र की संपादक शोभा जी( भक्ति बार्वे ) दो फक्कड़ फोटोग्राफर रवि( नासिर )और सुधीर( रवि वासवनी) को अपने न्यूज़ पेपर के लिए अनुबंधित करती है,
सतीश शाह की हत्या कराई जाती है पार्क मे और अनायास ही ये दो फक्कड़ फोटोग्राफर इस हत्या की फोटो ले लेते है
अब यहाँ से शुरू होती है भागम भाग, शोभा जी( भक्ति बार्वे ) तरनेजा को ब्लैक मेल कर लाखों वसूलना चाहती है, आहूजा किसी तरह कमिश्नर की लाश को पाना चाहता है
और अंत मे सभी पक्ष भागते हुए एक थिएटर मे पहुंचते है जहां महाभारत का मंचन चल रहा है..
पूरी फ़िल्म का सब से मज़ेदार, आप को खूब हँसाने वाला अंश..
बेईमान अफसर, बेईमानी पत्रकार, लालची पूँजीपतिऔर पूरी तरह सड़ चुकी गल चुकी व्यवस्था जिस मे हम और आप अपना जीवन व्यतीत कर रहें है
यह फ़िल्म 1983 मे बनी थी, किन्तु आज़ भी इस फ़िल्म को देखे तो आप को यह अनुभूत होगा की
भाई केवल समय आगे बढ़ा है, इस फ़िल्म की कथा और विषय आज भी हमारे देश का यथार्थ है
नई पीढ़ी से अनुरोध है की इस फ़िल्म को जरूर देखें
भारतीय सिनेमा की मास्टर पीस , यूनिक , अद्भुत फ़िल्म, जो हमेशा याद की जाएगी.. कैसे बहुत ही कम बजट मे फ़िल्म इंस्टिट्यूट से निकले नए नवेले आर्टिस्ट एक यादगार फ़िल्म को जनता के समक्ष लाते है और सभी अपनी उम्दा एक्टिंग से इस फ़िल्म को सफल बनाते है..
इस फ़िल्म पर बहुत लिखा जा सकता है, ज्यादा लम्बा ब्लॉग आप लोग पढ़ते नहीं, जो कुछ छूट गया वो फिर कभी..
*संजय अनंत ©*