सबरीमाला मंदिर का मुद्दा किसी भी चीज़ से ज्यादा एक राजनीतिक उपकरण है।
(mediasaheb.com) यह 2018 था जब सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर में महिलाओं के बेरोकटोक प्रवेश का आदेश दिया। इस मामले को सुलझा लिया जाना चाहिए था और अदालत अन्य लंबित मुद्दों के साथ लगी हुई थी। लेकिन तब राजनीतिक रस्साकशी दिखती है, जिसमें पार्टियां अपना वजन बढ़ाती हैं। एक ओर, हम मनुस्मृति का सहारा लेते हैं, हिंदू धर्म के कई धर्मशास्त्रों के बीच एक प्राचीन कानूनी पाठ जिसमें एक श्लोक इस तरह चला जाता है-जहां महिलाओं को पूजा जाता है, वहां भगवान रहते हैं, जहां उनकी पूजा नहीं की जाती है, सभी क्रियाएं विफल हो जाती हैं।
दूसरी तरफ, समाज का एक वर्ग महिलाओं को मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए याचिका दायर करता है। यह एक विरोधाभासी दृष्टिकोण है जिसे फिर से देखने की जरूरत है। यह सच है कि दुनिया एक पुरुषवादी समाज है। लेकिन तब, सुधार लगातार जारी हैं। भारत एक बहुत प्रगतिशील समाज है। यह ऐसे मुद्दे में उलझने का जोखिम नहीं उठा सकता। इसे तुच्छ मुद्दों को सुधारने और सुधारने की जरूरत है।( हि स )