मऊ, (mediasaheb.com) आधुनिकता की दौड़ में होली की पारंपरिक कर्णप्रिय गीतों की मधुर आवाज धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।
आधुनिकता की दौड़ में जहां तमाम लोक परंपराएं विधाएं एवं संस्कृतियों का लोप हुआ है वही देश व खासकर पूर्वी भारत #India के सबसे बड़ा त्योहार #Festival होली #Holiअब सिमटता सा नजर आने लगा है। पाश्चात्य संस्कृति आधुनिक समाज में गहरी पैठ बना चुकी है। इसमें हमारे त्योहार भी अछूते नहीं रहे। होली के दौरान पारंपरिक कर्णप्रिय गीतों की मधुर आवाज धीरे-धीरे गांव घरों में कम सुनाई पड़ने लग गयी है।
एकता और भाईचारा के प्रतीक इस त्योहार में अब पौराणिक प्रथाएं पूरी तरह गौण हो चुकी हैं। इसके स्वरूप और मायने भी बदल चुके हैं। बसंत पंचमी #Basant Panchami के दिन से शुरू होकर लगातार 40 दिन तक चलने वाले इस लोक पर्व का त्योहार होली अब महज कुछ घंटों में सिमटकर रह गया। यह त्योहार पहले होलिका दहन के एक हफ्ते बाद बुढ़वा मंगल तक मनाए जाने का प्रावधान रहा करता था।
माघ माह में शुक्ल पक्ष की बसंत पंचमी श्री बसंत उत्सव के रूप में शुरू यह ऋतु फागुन मास की पूर्णिमा तक चलता है। इस दौरान लगभग एक दशक पूर्व तक गांव की गलियां तक गुलजार रहा करते थे। बसंत पंचमी के दिन से लगातार 40 दिनों तक लोग ढोल मजीरा की थाप पर पारंपरिक फाग गीत (#Holi Songs ) के साथ देर रात तक उत्सव मनाया करते थे। वसंतोत्सव का धुन ऐसा कि क्या बच्चे, क्या बूढ़े सब एक रंग में रंगने को आतुर रहते थे। परंपरागत गीतों के साथ “होली खेले रघुवीरा अवध में” इत्यादि के साथ रम जाते थे। आधुनिकता की ऐसी बयार बही कि शहर से लेकर गांव तक लोग इसकी आधी में डगमगा से गए।
प्रख्यात लोकगीत गायक मोहन भारती ने कहा कि आने वाली पीढ़ियों को हमारी परंपरा लोक संस्कृति गूगल से सर्च करना पड़ रहा है, जबकि यह हमारी पूंजी रही है। गांव गांव में होने वाली होली की हुड़दंग में भी प्रेम का वास नजर आता था जबकि आज औपचारिकता का त्यौहार बनकर रह गया जो काफी तकलीफ देह साबित होता है।
सामाजिक कार्यकर्ता शिक्षक शिवशरन वर्मा ने कहा कि एक जमाना था जब होली के माहौल में ऊंच-नीच छोटे-बड़े का भेद मिट जाता था। गांव के चौक के सहन में एक साथ बैठकर झाल मजीरा ढोल के साथ होली गीत का आनंद लिया था। खास बात यह कि परिजनों को खाना खिलाने के बाद गांव की महिलाएं भी प्रेम पूर्वक बैठ कर गीत सुना करती थी। आज तो होली के नाम पर घरों से निकलना भी दुरूह हो गया है।
उन्होंने कहा कि आधुनिकता की दौड़ में सबसे अधिक नुकसान भारतीय लोक परंपराओं उठाना पड़ा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण होली का त्योहार है जो कभी 40 दिनों तक चलता रहा अब महज औपचारिकता के रूप में मनाया जाता है। एक समय था जब होली के हफ्तों बाद बुढ़वा मंगल पर चैता गीत के साथ त्यौहार का समापन माना जाता था आज वही त्यौहार अपने अस्तित्व की दुआएं देता नजर आ रहा है। होली के मौके पर पारंपरिक गीत गाने की प्रथा अब समाप्त हो चुकी है। इसकी जगह अब द्विअर्थी और फूहड़ गीतों ने ले लिया है। इन अश्लील गीतों के कारण होली को अब अलग नजरिये से देखा जाने लगा है।
नगर निवासी भूतपूर्व शिक्षक रमाशंकर पांडेय ने बीते दिनों को याद कर भावुक होते हुए कहा कि एक समय था जब होली से महीनों पूर्व झांझ मजीरा के साथ गांव के सभी छोटे-बड़े एक साथ होलीआरी में रम जाते थे। प्रेम सद्भाव आपसी भाईचारा का प्रत्यक्ष प्रमाण यह त्योहार हमारी एकता की मिसाल पेश करता था। आज लोक परंपराओं से रचित गीतों का स्थान फूहड़ गीतों ने ले लिया लोगों का घरों से निकलना मुश्किल हो गया है।(वार्ता)