मुंबई,(mediasaheb.com) धर्मा प्रोडक्शन की मल्टीस्टारर फिल्म कलंक की कहानी 1940 के दशक की दास्तां बयां करती है. बात करें कलंक के बैकड्रॉप की तो यह हुसैनाबाद नाम के एक काल्पनिक शहर पर आधारित है. दर्द और तकलीफ से भरी करीब तीन घंटे की यह फिल्म जब खत्म होती है तो आप थिएटर से बाहर नहीं आना चाहते हैं. दरअसल, वरुण धवन और आलिया भट्ट की प्रेम कहानी के बारे में आप और जानने को इच्छुक होते हैं.
फिल्म की कहानी आजादी से कुछ वक्त पहले के हुसैनाबाद की है जो कि एक मुस्लिम बहुल इलाका है. बलराज चौधरी का किरदार निभा रहे संजय दत्त अपने महल में बेटे आदित्य रॉय कपूर यानि देव और बहू सोनाक्षी सिन्हा (साथ्या) संग रहते हैं. कैंसर से पीड़ित साथ्या के पास जिंदगी के बस कुछ ही दिन बचे हैं और वह चाहती हैं कि उनकी मौत के बाद उनके पति अकेले नहीं रहें. वह देव की रूप (आलिया भट्ट) से शादी करवाना चाहती है.
रूप अपनी बहनों का भविष्य बचाने के लिए आदित्य रॉय कपूर यानि देव चौधरी से शादी करने के लिए राजी भी हो जाती हैं. अब रूप इस रिश्ते को बस किसी तरह ढो रही हैं. परिवार के अंदर एक कैदभरी जिंदगी जी रहीं रूप एक रोज सारी हदें पार कर जाती हैं और हीरामंडी में बहार बेगम यानि माधुरी दीक्षित के पास पहुंच जाती हैं. यहीं पर उनकी मुलाकात होती है वरुण धवन यानि जफर से. लेकिन उन्हें पता नहीं कि जफर से उनकी मोहब्बत एक ‘कलंक’ है.
लेखन और निर्देशन-
अभिषेक वर्मन के निर्देशन में बनी यह दूसरी फिल्म है. लेखन कितना कच्चा है इसका अंदाजा आपको तब लगता है कि जब आप आलिया भट्ट को एक सीन में रोते हुए देखते हैं और उनके डायलॉग्स सुनते हैं, या उस वक्त जब वरुण धवन आदित्य रॉय कपूर पर गुस्सा करते हैं. कलंक का कुल मिलाकर निर्देशन ऐसा है कि आप कई बार टिकट खरीदने को अपनी गलती समझने लगते हैं. ऐसा लगता है अभिषेक वर्मन ने 2 स्टेट्स का निर्देशन ज्यादा बेहतर किया था|(हि.स.)।