मुंबई ( mediasaheb.com) | 80 के दशक में तमाम ऐसी फिल्में बनी हैं जो ‘लार्जर दैन लाइफ’ रहीं है। मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा उस कालावधि के सफल निर्देशक रहे हैं। अनेक विसंगतियों के बावजूद उनकी फिल्मों की पटकथा में रवानगी होती थी जो दर्शकों को बांधे रखती थी। ‘ग्रैंड मस्ती’ जैसी सेक्सिस्ट कॉमेडी बनाने वाले मिलन झवेरी ने मारधाड़ और गैंगस्टर वाले 20वीं सदी के मसाले को 21वीं में परोसने की कोशिश की है, जिसमें वे बुरी तरह असफल रहे हैं।
रघु (सिद्धार्थ मल्होत्रा) कूड़े के ढेर पर गैंगस्टर टैंकर माफिया अन्ना (नासर) को मिलता है। विष्णु (रितेश देशमुख) अन्ना का अपना बेटा है। उसकी लंबाई 3 फुट की है। एक ओर रघु अन्ना के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है तो दूसरी ओर विष्णु रघु से इतना जलता है कि उसे मार देना चाहता है। सेक्स वर्कर आरजू ( रकुलप्रीत सिंह) है रघु से प्यार करती है लेकिन रघु का प्यार तो जोया है। जोया संगीत से उस दुनिया को बदलना चाहती है जिसमें खून खराबा है। अवांतर रूप से मंदिर मस्जिद, हिन्दू मुसलमान भी आता है। कहने का मतलब कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा झवेरी ने कुनबा जोड़ा।
‘मरजावां’ में नायक तुकबंदी करता है, नायिका सांकेतिक भाषा में पहेली पूछती है खलनायक ‘अमुक की हाइट क्या है’ बोल के जोक सुनाता है। दर्शक जब थिएटर से बाहर आता है तो नायक की तुकबंदी की पैरोडी बनाने का उसका मूड हो जाता है। नायक क्लाइमेक्स में कहता है ‘मारुंगा तो मर जायेगा, अगला जन्म लेने से डर जाएगा’। दर्शक के दिमाग में आता है ‘मरजावां देखेगा तो मर जायेगा, अगली फिल्म देखने से डर जाएगा’।
अभिनय की बात करें तो सभी अभिनेता केवल मेनरिज्म दिखाने के चक्कर में अपने चरित्र की आत्मा को मार देते हैं। कोई भी अभिनेता प्रभाव छोड़ने में सफल नहीं हो पाता। अभिनेत्रियों को आइटम सॉन्ग के लिए रखा गया है। नृत्य के स्टेप अश्लीलता से भरे हुए हैं। ले दे कर केवल संगीत पक्ष ही सुकूनदायक है। थियेटर से बाहर आने पर वही याद रह जाता है। फिल्म को अपने रिस्क पर देखने की सलाह है।