मुंबई (mediasaheb.com) गरीबी, घुटन, बेचैनी, बेबसी, फकीरी, कलंदरी का अहसास जब आंखों से टपका तो उसकी अदा बन गई, जो रुपहले परदे पर ‘इरफान’ (ब्रह्मज्ञान) हो गया, जिसमें सब ने खुद को महसूस किया इसलिए जब जनाजा उठा तो बरबस पूरा देश कह उठा, ‘क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और।’
उर्दू अदब के महानतम शायर मिर्जा असदुल्लाह खां ‘गालिब’ को बारी-बारी से जब अपने सातवें एवं अंतिम बेटे आरिफ के जनाजे को कांधा देना पड़ा तो उनकी पीड़ा लफ्जों के सहारे दुनिया तक पहुंची, ‘ऐ, फलक-ए-पीर जवां था अभी आरिफ, क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और।’ गालिब के इस शेर में पूरी दुनिया ने अपनी पीड़ा महसूस की लेकिन 29 अप्रैल 2020 को दुनिया का यह दुख एक शख्स ‘साहबजादे इरफान अली खान’ की मौत पर भी फूटा, ‘क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और।’
कुछ तो है, जिसे इरफान अधूरा छोड़ गए। उसी ‘कुछ’ को आज पूरा देश तलाश रहा है। इसलिए, सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम का कोई ऐसा वॉल नहीं, जिस पर इरफान नहीं हैं। इन वॉल पर अलग-अलग रूप में याद किए जा रहे इरफान को मुकम्मल इरफान बनाने की कोशिश जरूर है, जो गरीबों का ‘बिल्लू बार्बर’, भ्रष्टाचार से लथपथ समाज और व्यवस्था को सबक सिखाने वाला ‘मदारी’ पिता, बेटी को बचाने वाली परेशान मां के ‘जज्बा’ के साथ खड़ा इंस्पेक्टर योहान, शिक्षा के अधिकार की रक्षा करने वाला ‘हिंदी मीडियम’ का राज बत्रा तो है।
लेकिन, संघर्ष की साथी सुतपा सिकदर का पति या ‘मकबूल’ नहीं है। हां ये जरूर है कि इरफान सुतपा के लिए जीना चाहते थे। उन्होंने कहा भी था, “सुतपा चौबीस घंटे सातो दिन मेरे साथ होती है। यदि मैं जी पाता हूं तो उसके लिए ही जीना चाहूंगा। वह इकलौती वजह है कि अब मैं भी जीने की कोशिश में लगा हूं। अब तो मोहब्बत की इस बेमिसाल जोड़ी के लिए महज इतना रह गया …तू मेरे रूबरू है, मेरी आखों की इबादत है…बस इतनी इजाजत दे, कदमों पे जबीं रख दूं…फिर सर न उठे मेरा, ये जां भी वहीं रख दूं।”
कुछ तो अधूरा जरूर छोड़ गए इरफान, जिसे बाबिल और आर्यन भी ढूंढ रहे हैं और शायद कलानगरी मुंबई भी ढूंढ रही है। शायद जिंदगी के वो तमाम अहसास, जो उनके रूह में जज्ब थे और जिसे पिघलकर अभी उनकी आखों से टपकना बाकी था, जिसे अदा बनना बाकी था, जिसे रुपहले परदे के जरिये इरफान (ज्ञान) होना बाकी था। इरफान खान जो दिखा पाए उससे कहीं ज्यादा अपने साथ लेकर चले गए। वह मिर्जा गालिब के कबील के थे जो मानते थे….रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं काइल, जब आंख ही से ने टपका तो फिर लहू क्या है….। यही इरफान को श्रेष्ठ इंसान और महान कलाकार बनाता है।
तभी मशहूर शायर और गीतकार जावेद अख्तर ने भी माना, “अच्छे कलाकार होते हैं लेकिन अपने जैसे अदाकार बहुत कम होते हैं। उनका अपना एक अंदाज था। डायलॉग बोलने का अंदाज भी बहुत अलग था। हमने एक बहुत विलक्षण व्यक्तित्व को खोया है। कई फिल्में ऐसी हैं जिन्हें देखकर लगता है कि ये सिर्फ इरफान ही कर सकते हैं।” शाहरुख खाने ने कहा, “मेरे दोस्त… इंस्पिरेशन और हमारे समय के सबसे बेहतरीन कलाकार। अल्लाह आपकी आत्मा को शांति दे इरफान भाई… हम आपको याद करेंगे और यह भी कि आप हमारे जीवन का हिस्सा थे। पैमाना कहे है कोई, मैखाना कहे है दुनिया तेरी आंखों को भी, क्या-क्या न कहे हैं। लव यू।”
राजस्थान में जयपुर के आमेर ओड़ इलाके के एक साधारण परिवार में 07 जनवरी 1967 को जन्मे साहबजादे इरफान अली खान ने होश संभालने पर पिता यासीन अली खान की पंचर टायर बनाने की दुकान की विरासत देखी। गरीबी की चादर में लिपटे बचपन ने छुटपन की हर जरूरत के सामान से महरूम कर दिया। तरसने और ललचाने के अहसास ने घुटन दी, जो धीरे-धीरे बेचैनी में तब्दील हो गई। क्रिकेट के शौक ने सी. के. नायडू टूर्नामेंट खेलने के काबिल बनाया लेकिन जयपुर पहुंचने के लिए 200 रुपये नहीं जुटा पाए तो उन्हें बेबसी भी समझ आई।
स्कॉलरशिप के सहारे जिंदगी के अलग-अलग रंग सीखने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली पहुंचे इरफान ने संघर्ष के बल पर न केवल सीखा बल्कि उसे जीते-जीते फकीरी और कलदंरी का अहसास भी पाया, जो उनके अभिनय में दिखाई पड़ता है। निश्छल, निर्भीक, बेबाक और मासूम इरफान को 2018 में कैंसर ने भी अपना बना लिया। लगभग डेढ़ साल वह निर्भीकता से डटे रहे और अपनी आखिरी फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ पूरी की। निर्माता-निर्देशक अनुभव सिन्हा ने कहा, “अभी तो टाइम आया था तेरा, मेरे भाई.. अभी तो कितना काम करता तू जो इतिहास में लिखा जाता, क्या यार? थोड़ी ताकत और लगाता भाई, पर लगाई तो होगी ही तूने सारी ठीक है, जा.. आराम कर.. दो साल बहुत लड़ा तू, थक भी गया होगा.. एक बार बैठना चाहिए था हमें, दारू पीते, पर बैठते नहीं हम।”
अंत में, 29 अप्रैल को अपनी ही मां की उंगली पकड़कर इस दुनिया से यह कहते हुए
रुख्सत हो गए, “दरिया भी मैं, दरख्त भी मैं…झेलम भी मैं, चिनार भी मैं….दैर (मंदिर) भी हूं, हरम (मस्जिद) भी हूं…शिया भी हूं, सुन्नी भी हूं…मैं हूं पंडित…मैं था, मैं हूं और मैं ही रहूंगा।”(वार्ता)
Saturday, June 21
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