लोहित बैंसला
भारत में समुद्री तूफान की दस्तक
बड़े पैमाने पर 90 के
दशक में देखने को मिली जब आंध्रप्रदेश में आए चक्रवात में 14,204
लोगों
के मारे जाने की पुष्टि हुई। इसमें लाखों लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त होने के साथ
सैकड़ों करोड़ की संपत्ति का नुकसान हुआ। इसके बाद उष्णकटिबंधीय चक्रवात की चपेट
में भारत समेत दक्षिण एशिया के तटीय क्षेत्रों के आने से बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में
भारी तबाही देखने को मिली। हजारों की तादाद में मछुआरे और लाखों पशु मौत की नींद
सो गए। हजारों करोड़ की सम्पदा के नुकसान के साथ लाखों लोग अब तक दक्षिणी, उत्तरी गोलार्ध में चक्रवात के
चक्रव्यूह में फंसकर जान गंवा चुके हैं।
भारत में आंध्रप्रदेश, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में चक्रवाती तूफानों ने खूब तबाही मचाई है। इनमें हुदहुद, हेलन, ओनिल, येमयिन, बी.ओ.बी- 6, एआरबी-02, फ्यान, फैलिस, थेन, तितली और नीलोफर नामक प्रमुख चक्रवात आए हैं, जिनसे बड़ी तबाही का मंजर देखने को मिला है। वर्तमान में अमेरिका के दक्षिण क्षेत्रों में समुद्री तूफान ने फिर एक बार दस्तक दे दी है। इससे जनजीवन अस्त-व्यस्त होने के साथ लोग में भय का माहौल है। आम लोग ये ही नहीं समझ पा रहे कि आखिर उन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा है जो इन बड़ी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। विश्वभर के जानकार इसकी वजह ग्लोबल वार्मिंग बताते हैं। जिसमें पृथ्वी का तापमान बढ़ने से समुन्दरों के ऊपर की हवा सूर्य से प्राप्त ऊष्मा के कारण गर्म हो जाती है और तेजी से ऊपर उठती है। हवा की गति तेज हो जाने से यह विशाल मात्रा में घूर्णन करती हुई एक बड़ा घेरा बना लेती है। उसकी परिधि 2000 किलोमीटर से भी अधिक हो सकती है।
खास बात ये है कि इस गोल-गोल घूमते बवंडर का केंद्र शांत होता है। इस तरह पैदा होते हुए चक्रवात में कोई बादल न होते हुए भी तूफान के साथ बारिश होने लगती है। इस कारण जब गरम हवा ऊपर उठती है तो वायु में मौजूद नमी को अपने साथ ले जाती है। ये नमी के कण हवा में तैरते धूल-कण पर जम जाते हैं जो संघनित होकर गर्जन के साथ भारी वर्षा के रूप में गिरकर तबाही मचाते हैं। इस स्थिति की वजह पर चर्चा करें तो विकसित और विकाशील देश भले एक- दूसरे पर आरोप मढ़ते रहें, लेकिन इसके लिए वे सभी देश जिम्मेदार हैं जिन्होंने सतत विकास का मॉडल नहीं अपनाया या नहीं अपना रहे।
अब ग्लोबल वार्मिंग संसार और जनजीवन के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है। इसमें जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाऊस गैस है, जिनमे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण गैस कार्बन डाइऑक्साइड है। उसके कारण पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी के तापमान में बेहताशा बढ़ोतरी दर्ज की गई है। सन 2006 में इसके ऊपर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘द इंकॉन्विनियेंट ट्रूथ’ ने विश्वभर में ग्लोबल वार्मिंग को एक विभीषिका के रूप में दर्शाया, जिसका प्रमुख कारण मानव जनित कार्बन डाइऑक्साइड गैस माना गया।
एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग में 90 फीसदी योगदान मानवजनित कार्बन उत्सर्जन का है जिसमें अकेले 40 फीसदी सिर्फ कॉस्मिक विकिरण से है। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों द्वारा उत्सर्जित ग्रीन गैसों की यदि बात करें तो सबसे अधिक पॉवर स्टेशन से 21.3 प्रतिशत, उद्योगों से 16.8 प्रतिशत, यातायात और गाड़ियों से 14 प्रतिशत, खेती उत्पादन से 12.5 प्रतिशत, जीवाश्म ईंधन इस्तेमाल से 11.3 प्रतिशत, रिहायशी क्षेत्रों से 10.33 प्रतिशत, बायोमास जलने से 10 प्रतिशत और कचरा जलने से 3.4 प्रतिशत सबसे कम, जिसमें किसानों के खेतों की पराली भी शामिल है। भले उसे सबसे बड़ा मुद्दा बनाया जाता हो। प्रदूषण की यही रफ़्तार रही तो वैज्ञानिकों का मानना है कि अगले दशकों में औसत तापमान 0.3 डिग्री सेल्सियस की मात्रा से बढ़ने से 21 वीं सदी के अंत तक 8 डिग्री सेल्सियस तक जा सकता है। उसके परिणाम बहुत घातक होंगे। जिसमें बहुत से जीव-जंतुओं के विलुप्त होने के साथ समुद्र तट पर बसे शहर सागर में ही समा जाएंगे। जलवायु के बिगाड़ का ये सिलसिला यूं ही चलता रहा तो कुपोषण और विषाणु जनित रोगों से मौतों की संख्या में भारी बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है। इस गंभीर संकट से निजात पाने के स्थान पर दुनियाभर की सरकारें इस बात पर उलझी है कि इस गर्माती धरती के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए।
हालांकि सच ये है कि इसके लिए जिम्मेदार जो भी हो लेकिन सूखा, अतिवृष्टि, भूस्खलन, चक्रवात और समुद्री हलचलों के रूप में भुगतना सबको पड़ रहा है। इसी को मद्देनजर रखते हुए ग्लोबल वार्मिंग पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों ने वर्ष 2015 में नई जलवायु संधि का पहला कदम जर्मनी के बान शहर में उठाया गया जिसमें विश्वभर के 195 देशों ने उपस्थिति दर्ज कराते हुए तय लक्ष्य को हासिल करने की सहमति जताई। हालांकि कुछ देशों का ये मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज्यादातर ऐतिहासिक जिम्मेदारी अमीर देशों की है उनके द्वारा जनित इस समस्या को सुलझाने का बोझ उन पर डालना अनुचित है। इस बीच भारत जैसे देश इसके लिए अलग मंत्रालय और बजट की व्यवस्था के साथ जन जागरूकता अभियान के आलावा नई तकनीकी और सौर ऊर्जा को बढ़ोतरी देने के लिए कदम उठा रहे हैं।
पर्यावरण के मुद्दे को विश्व पटल पर रखने और संसारभर के देशों को इसके प्रति जागरूक करने की दिशा में पहल के अलावा उत्पादन और जीडीपी विकास दर में कमी नहीं आने देने के बावजूद हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में भारी कमी लाने पर यू. एन. द्वारा भारत के प्रधानमंत्री को ‘चैम्पियन ऑफ अर्थ’ से नवाजा गया है। यदि इसी दिशा में चीन, दक्षिण अफ्रीका और लैटिन अमेरिका सहित दुनिया के तमाम देश मिलकर काम करते हैं तो ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने से न सिर्फ रोका जा सकता है बल्कि कम भी किया जा सकता है जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित कल और वर्तमान समय में चक्रवात जैसी अनेक प्राकृतिक आपदाओं से जनजीवन को सुरक्षित कर सकता है।(हि.स.)।